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Archive for the ‘Hindi’ Category

बेंचू

Thursday, November 29th, 2018

Javed Akhtar (जावेद अख्तर) 

jave

कमाना खाना बचाना

पीढ़ी दर पीढ़ी से शामिल है बेंचू कुंजड़ा की किस्मत में

उसे फुर्सत ही कहां है कि वह बहस करे आरक्षण पर

चर्चा करें सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर

सवाल उठाए धारा 341 की धर्मनिरपेक्षता पर

वह तो बस मस्त है अपनी अस्त-व्यस्त दुनिया में

दस जने का परिवार

बकरियों की सानी छितराती मुर्गियाँ

भैंस का गोबर

बीमार पंड़वा

लोना खाई दीवारें

टपकता छप्पर

ढनगा हुआ लोटा

अधनंगे बच्चे

टूटी हुई खटिया

कुछ और देखने का मौका ही कहां देते है उसे

कि वह देखेे और सवाल उठाए

धरा 341 की धर्मनिर्पेक्षता पर

हिसाब मांगे वक्फ़ की सम्पत्ती का

बात करे हिस्सेदारी की

उसका जीवन तो बस वही दाल आटा है

एक दिन सय्यद साहब मदरसे का चंदा करने आए

और बेंचू को टोपी पहना गए

अब बेंचू का लड़का भी

हील हील कर कुछ रटने लगा था

लेकिन अब बेंचू की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं

मदरसे के लिए बढ़ चढ़ कर चन्दा देना

बड़े पीर साहब के उर्स पर डेग चढ़ाना

जैसे फर्ज हो गया था उसके लिए

मगर वह खुश था

बेंचू को बस एक ही मलाल था

कि वह नमाज़ के लिए वक्त नहीं निकाल पाता

मगर हाँ क्या मजाल जो एक भी उर्स मुबारक या जलसा

उसके बगैर हो जाए

आखिर जन्नत के लिए सीढ़ी भी तो जरूरी है

अजमेर शरीफ, वारिस पिया

अब्बू मिंयाँ दादा मिंयाँ

घोड्सहिदन बाबा बुजरुग् बाबा

मुनव्वर शाह बाबा पांच पीर बाबा

आस पास की ऐसी कोई मजार या चौखट नहीं

जहाँ बेंचू ने माथा न टेका हो

आखिर जन्नत के लिए सीढ़ी भी तो जरूरी है

उसके पास समय ही कहाँ है

कि वह समझे

डेमोक्रेसी ब्यूरोक्रेसी और मीडिया की सांठ गांठ को

परसाल पुत्तन का लड़का मर गया था

तालाब में डूबकर

अख़बार में आई थी खबर

डी एम एस डीएम भी तो आए थे

उसके लिए तो बस यही है

शासन प्रसासन और मीडिया

मरने मारने की खबर

कौनो ससुर खाय का दै देइ का यार

बेंचू कमाता है खाता है बचाता है

और त्यौहार आय जाता है

बेंचू कमाता है खाता है बचाता है

और फिर त्यौहार आय जाता है

अब अगर त्यौहार से कुछ बचना है

तो बच्चे का खतना है

देखते देखते समय बीत जाता है

बिटिया सायानी हो जाती है

और फिर शादी ब्याह

अब बेंचू को मूतने तक की फुरशत नहीं

वो कैसे बात करे मार्क्सवाद की अम्बेडकरवाद की

वो कैसे समझे मनुवाद को पूंजीवाद को

वो क्या करे

ग्लोब्लाइजेसन का कैपिटलाइजेशन का

वह तो समझता है

यह सब खाए अघाए लोगों के लिए है

लेकिन

यह बात बेंचू से बेहतर

देश का सत्ताधारी वर्ग समझता है

सय्यदवाद ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के दुर्गुणों से युक्त

देश का सत्ताधारी वर्ग समझता है

अगर देश का बेंचू पेटभर खाने लगेगा तो

राजनीति करने लगेगा

और जब राजनीति करने लगेगा तो

हिस्सेदारी मांगेगा

और जब हिस्सेदारी मांगने लगेगा

तो  बिना मेहनत के

लड्डू लावन लापसी नहीं मिलने वाली

जो वह नही चाहता

और वह इसलिए देश की 70% आबादी के सामने रोटी की समस्या बनाए रखना चाहता है

वह केवल चाहता ही नहीं

इसके लिए उपक्रम भी करता है

देश के गोदामों में

हजारों टन अनाज सड़ा दिए जाते हैं

देश का 80% संसाधन

20% लोगों को लुटा दिए जाते हैं

देश का बजट

चंद लोगों द्वारा हजम कर लिया जाता है

लाखों बैकलॉग भर्तियां नहीं भरी जाती

और देश के 80% लोगों को

थमा दिए जाते हैं झुन झुने…

कभी तीन तलाक के

कभी लव जिहाद के

कभी मंदिर मस्जिद के

कभी 370 वाले कश्मीर के

जिसे बजा रही है बेचू की पीढ़ियां

सदियों से

झुन झुन झुन झुन झुन………………..

एक दिन सय्यद साहब का लड़का

दाढ़ी मूँछ आ घोटे सूट बूट में

टाई लगा के आया था

बता रहा था

किसी यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर है

और उसकी वाइफ

सरकारी अस्पताल में स्टाफ नर्स

अरे हां ! वही सैयद साहब

जिसने बेंचू को एक दिन टोपी पहनाया था

देसी मुर्गा लेने आया था

बेंचू ना चाहते हुए भी

बिना मोल भाव किए

अपने दरबे का सबसे हिटलर मुर्गा पकड़ लाया था

पर पता नहीं क्यों

बेंचू को कुछ अंदर ही अंदर काट रहा था

बूढ़ा बेंचू भुनभुना रहा था

मुर्गी पाली हम

और अंडा खांय सैयद साहब

बकरी पाली हम

और कुर्बानी करै सैयद साहब

बाग ताकी हम और फल खांय सैयद साहब

चंदा देई हम

और मदरसा चलाएं सैयद साहब

वोट देई हम और मंत्री बनै सय्यद साहब

ऐसा लग रहा था जैसे

मुर्गा के बहाने बेचू की सदियों की भड़ास फूट पड़ी हो

खटिया पर पड़ा बेंचू जैसे अल्लाह ताला से

शिकायत कर रहा हो

सबसे ऊंचा तो हम ही उठाए थे अलम

लिप्टस पर चढ़कर बारह वफात मेंबांधा था  अपना सबसे ऊंचा परचम

रोजे रखकर भी तो किया था मातम

तो फिर क्यों मालिक

क्यों नहीं बदली हमारी किस्मत

बेंचू को आज भी याद है

सैयद साहब कहते थे

नहीं मिलती मुसलमानों को नौकरी

यह बात अब उसे तीर की तरह चुभ रही थी

सच ही तो कहते हैं सैयद साहब

कहां मिलती है पसमांदा मुसलमानों को नौकरी

कब्बन का लड़का

जिस मदरसे में 700 रुपए महीने में पढ़ाता था

वह मदरसा जब एड हुआ

तो चपरासी तक की जगह भी नहीं मिल पाई थी उसे

सारी सीटें तो सैयद साहब के

चाचा जात खालाजात मामू जात बेटों से ही भर गई थी

बागड़ हाफिज जी तो एक साल पहले ही

कमेटी की साजिश का शिकार हो गए थे

अब बेंचू को कुछ कुछ समझ में आ रहा था

अब वह जाग रहा था

उसकी आंखें लाल हो गई थी

चेहरा तमतमा उठा था

हाथ में मुर्गा थामें सय्यद हिम्मत नहीं जुटा पाया

की कह दे मुर्गा ज़िबह करने को

मुर्गा लेकर वह दबे पांव निकल गया

उसकी चोरी पकड़ी जा चुकी थी……
~~

 

जावेद अख्तर, मास्टर इन पोलिटिकल साइन्स ,भीखमपुर मूरतगंज कौसाम्बी यूपी

 

अभी तो बाकी है…

Friday, December 23rd, 2016

 

Renu Singh

 

आते हैं कुछ धुंधले नज़र, अपने पैरों के निशान,renu-singh
अभी तो बाकी है खुद से खुद के पहचान ।    

अभी तो मिली है परिंदों को परवाज़,
अभी तो छेड़ा है उम्मीदों ने साज़ ।

अभी तो शुरू हुआ है नव्ज़-ए-ज़ोर का तूफ़ान,
अभी तो मिली है मंज़र- ए- खाक़ को ज़ुबान ।

माना आज़ादी हक है तुम्हारा,
पर आज़ाद थे कब तुम?

था आबाद कहाँ आशियाँ तुम्हारा?
कहाँ सुना कभी तुमको किसीने?

जब सी दिया हलक तुम्हारा,
जब रोक दिए कदम तुम्हारे ।

चल चलकर तराश ले खुदको तू,
बुलंदियों का ये सफ़र नहीं आसाँ ।

तबियत से तलाश ले खुद की हुस्न- ए- पेशानी की बसर,
कि कोई रोक न पाए तेरी धड़कती रवानियों का सफ़र ।

समेट कर रख ले अपनी रूह में इस कदर,
की न सुन पाए तू, खुद से खुद की बेमानियों कि ख़बर ।

के, हर जद्द-ओ-जेहद हो मुकम्मल तेरी,
हर रज़ा खुद, तुझ-पर मेहेरबान ।

कर खुद को रिहा इन ज़माने के बेतुके, ग़ैर- मुतालिक़ फरमानों से,
है ललकारे तेरे होने पर, हाथ में लिए जो कमान ।

हर अक्स में झिलमिलाए बस बुलंदियों का चमकता शिखर,
कर खुद को बेख़ौफ़, ज़माने की इन जंजीरों से, बे- खबर ।

ठहर न जाये किसी की गुज़ारिश पर तू यूँही,
जायज़ है, तेरी नाकामियों की गुज़ारिश तो वो किया ही करते हैं ।

बिना किसी तक़ल्लुफ के,जिन्हें है तकलीफ़ तेरे होने से,
तेरी बेख़ौफ़ उड़ानों से, तेरी मोहारत के किस्से- कहानियों से ।

जो महरूम हैं तेरे हुनर की पहचान से,
या फिर तेरे गहरे पड़े क़दमों के निशाँ से ।

तू कर उन्हें आगाह,
तू कर उन्हें आगाह….

कर रुबरुह… तमाम गुलामी के खिदमतगारों को,
जो न जाने कबसे हैं बने फिरते, खालिक-ए-खाक़ तेरे ।

तो बनाये चल काफिले….
बढ़ाये चल काफिले…..
आबाद रहे ये काफिलें….
रौशन रहे ये काफिले…….

आते हैं कुछ धुंधले नज़र अपने पैरों के निशान,
अभी तो बाकी है खुद से खुद के पहचान ।

अभी तो मिली है परिंदे को परवाज़,
अभी तो छेड़ा है उम्मीदों ने साज़ ।

~~

नव्ज़-ए-ज़ोर: sturggle, toil, मंज़र- ए- खाक़: sight of destruction, हुस्न-ए-पेशानी: beautiful-forehead,खालिक-ए-खाक़: creator of demise.

 ~~~

Renu Singh, hails from Lucknow, UP and is currently pursuing Ph.D at the Dept. of Political Science, Jamia Millia Islamia. Raised in an Ambedkarite family, she is well acquainted with the stories of Babasaheb and Gautam Buddha, the Dalit movement, BAMCEF and BSP, the atrocities against dalit community and takes keen interest in issues of social justice, dalit feminism and exclusion of marginalized communities

 

नया राष्ट्र गीत

Saturday, July 23rd, 2016

Vruttant Manwatkar

vrutant manwatkar

चमचा काल से
प्रबुद्ध युग तक,
धम्मचक्र को आगे बढ़ाएं.
हिन्दू राज पीड़ित भारत को
ऊँच-नींच से मुक्त कराए.

मानव-मानव समान सारे
सब ने मिलके पुकारा हैं.

सोच नयी, आचार नया
यह नव बुद्धि का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा हैं.


सत्य खोजती तर्ककला का
नालंदा का, तक्षशिला का.
विश्वशांति परचम फहराए
चक्रवर्ती की सिंह सीला का.

बलिराजा की, शिवराजा की
सत्ता से राज सँवारा हैं.

इतिहास नया, विश्वास नया
यह नव स्वराज्य का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा है.

क्रांतिसुर्य की नव ऊर्जा का
शेख फातिमा, सावित्री का.
अहंकारी वीरों से लड़ती
लगामधारी झलकारी का.

मर्यादा पुरुषोत्तोम का नहीं
मुक्ता ने यहललकारा है.

बोधनया, प्रतिरोध नया
यह नव समाज का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा है.


उल्गुलानो उलगुलान!
स्वतंत्रता के युद्धनाद का.
पीड़ित जन को प्रेरित करते
बिरसा के मानवतावाद का.

बंधुता की किरणों से
जग में जगमगता तारा है.

तरंगें नयी, प्रकाश नया
यह नव प्रभात का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा है।


नानक, गुणावली, ख्वाजा का
लालोन, तुका, खुसरो, कबीरा का.
मन मूल्यों की राह दिखाते
अभंग-दोहे कि सतवाणी का.

बेगुमपुरा का ध्येय लिए
मानव दर्शन का पिटारा है.

विमर्श नया, आदर्श नया
यह नव मुक्ति का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा हैं.


शिक्षित बनो और संगठीत हो
संघर्षों से जग को जीत लो.
बोधिवृक्ष के ज्ञानमूल से
नव निर्माण की नीव को रख लो.

न्याय नीती से विधि शासन का
बाबासाहेब का इशारा है.

सम्मान नया, अधिकार नया
यह नव विधान का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा है.

 

बहुजन हिताय
बहुजन सुखाय
बुद्ध धम्म सम्यक वाणी का.
स्वयं सदा सेवा में तत्पर
समताकारक मैत्रीभाव का.

अत्त दीप भव, ज्ञान तेज से
बहती मंगल धारा है.

मुट्ठी बाँधो, 'जय भीम' करो
यह नव क्रांती का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
बहुजन राष्ट्र हमारा है.
बहुजन राष्ट्र हमारा है.

 

Vruttant Manwatkar is from Nagpur, and is pursuing  PhD at the School of International Studies, JNU.

महिषासुर मेरा कौन लागे है 

Thursday, October 22nd, 2015

 

Asha Singh

महिषासुर शहादत दिवस के अवसर पर 

महिषासुर मेरा कौन लागे है 

 

दुर्गा मेरी कुछ नहीं लगती

महिषासुर मेरा बहुत कुछ लगता है

 

महिषासुर मेरा बाप

मैं उसकी आज्ञाकारी बेटी

 

महिषासुर मेरा भाई

मैं उसकी सुशील बहन

 

महिषासुर मेरा पति

मैं उसकी सेविका पत्नी

 

महिषासुर शहादत दिवस मनाओ

मैं चलूंगी तुम्हारे पीछे-पीछे

सदैव तुम्हारी

आज्ञाकारी

बेटी, बहन, पत्नी, बस?

~

Asha Singh recently submitted her PhD thesis at TISS, Mumbai, on Bhojpuri Folk songs and Women. Before that she was a Hindi journalist in Bhopal. She belongs to Bhojpur district in Bihar. 

Janeu-less writer 

Friday, September 25th, 2015

Musafir Baitha

Mister writer is a Brahmin
and has turned seventy two
not his fault to be born 
in a Brahmin clan
he says so himself, we do too
reaching this grand age
the writer has initiated
a massive programme to
wash away his Brahmin-ness
to wipe it clean
by breaking his janeu

despite his self-proclamations
or as per the worlds’ claims
in fact, because the world says so
people still accord him respect 
reserved for a Brahmin 
even in this de-casting that unfolds
what’s his role?
to who all,
where all
should he keep swearing by
this breaking of his janeu?

all exclusive savarna panels
still extend him ceremonious invitations
and his janeu-breaking,
de-casting trick
has been deliberately ignored
by his friends and foes alike
who continue to revere him 
at his savarna pedestal
even if he wants to escape all this
then how can he
or why should he?
given the benefits 
of this special treatment
it is easier to break that janeu                                  
because it only breaks on the surface  
even as it stays intact under 
seven layers of clothing

that this outward breaking
has some visible effect
is not necessary

to have that effect
a lot more than this thread 
needs to be broken

the twenty two years Dasrath Manjhi took
is the kind of persistence one needs

janeu is brahminism
the claim to be a different being
to be born of the same mother
and yet imagine oneself to be differently born
it is a reflection of the hubris
of some false exalted origin.
It requires persistence
whether it comes from the heart
or against one’s wishes

I asked the writer:
good you broke it 
but apart from this janeu
what else have you broken
in the thread that binds your caste?
The writer seems at a loss for words.

~

English translation of Musafir Baitha’s Hindi poem 'Janeu-tod lekhak'; translated by Gaurav Somwanshi and Akshay Pathak

You cannot die, Manu Taanti!

Tuesday, September 1st, 2015

Gurinder Azad

I kept silent at your death
didn’t speak with anyone either.

but then yesterday, 
just across the metro
when I spotted a crowd of daily wage labourers 
the thought of you came flashing,
in their faces
I searched for the elegy to 
what followed those four days of your labour.. 
but I kept walking, didn’t stay there for long

there were moments when
the slogans to demand our rights
and your screams ground in that thresher –
both seemed the same to my mind.

and moments when
my conscience
got drenched in fear
after looking at
a vacuum appear on the vast backdrop
of our movement.
then giving myself false assurances, I moved on

your last few pictures on facebook – I 
have not been able to look at those.
But that image that moves faster than imagination –
it disappears somewhere 
after witnessing your helpless last moments
at the unknown shores of your family’s remorse

but even in this
the memory throws forth,
however hazily,
the vast backdrop of our movement
where Khairlanji and other such massacres
appear holding on to canvases.

however, Manu Taanti
knowing my conscience 
in whatever form,
today, I shall speak with my 
broken, perhaps dwarf-like words
that the time will change
your circumstances
your condition
the news of your murder – all
have passed on to our marching feet

Our massacres do not die!

and this wasn’t about demanding your wage 
for those four days of labour
this is the account of many centuries..
till it is settled,
You cannot die, Manu Taanti!

~

Akshay Pathak’s English translation of Gurinder Azad’s Hindi poem, 'yeh chaar din ki dehaadi ki baat nahin thi, Manu Taanti'

…for us poor folk, what lohris, what diwalis?

Tuesday, August 4th, 2015

 

गुड़ती में मिले हमें दुःख परेशानी

शायद देती हमें दादी नानी

रूढ़ियों पर गुज़रता बचपन हमारा

जट्टों के खेतों में जवानी 

 

सोचते हुए दिन रातें जागके गुज़ार लीं 

किस बात की गरीबों की लोहड़ी दिवाली

 

रात भूखे सोये हमें शंका है सवेर की

एक वक्त की खाली अब पता नहीं दूजी बार की

हमारी तो खुशियां भी फ़िक्रों ने खालीं

 

किस बात की गरीबों की लोहड़ी दिवाली

 

माँ गयी काम पर अभी तक आई नहीं

क़यामत की है ठण्ड उसने कोटी भी तो पहनी नहीं

पाथते ईंटें उसने उंगलियां घिसालीं

 

जब हमारे पिता बारे लोग हमसे पूछते

आता नहीं जवाब हमें सवाल लाखों उठते

लिखी हुई नसीबों की न जा सकें टाली

 

किस बात की गरीबों की लोहड़ी दिवाली

 

दिल करे किसका कि तमाशा बने जग का

संगदिल सेक बुरा तानों की आग का

आंचल में इल्ज़ामॊं की गठ्री जाए न सहारी

 

किस बात की गरीबों की लोहड़ी दिवाली

~

mixed in the gudthi,*we got sorrows and woes
our nanis and dadis perhaps passed us those 
on heaps of dung we spent our childhoods 
working the fields of those jatts, our youths

sleepless nights and days, we spent brooding
for us poor folk, what lohris, what diwalis?

slept hungry at night, for us the morning is a doubt
if one meal we eat, over the next hangs doubt
all these worries, they swallowed even our joys

…for us poor folk, what lohris, what diwalis? 

Mother went to work, isn’t back home till now
she has no warm clothes, and it’s biting cold now
lifting those bricks, and the pathana*
left her hands calloused and bruised

when they ask about our Father, we have no answers
many doubts arise for we have no answers
what fate has written, can’t be refused

…for us poor folk, what lohris, what diwalis

who desires to be the world’s laughing stock?
Sangdila* harsh is the heat of these fire-like taunts 
the heart cannot endure, this heavy load of slander

…for us poor folk, what lohris, what diwalis? 

*gudthi: the first food (mostly honey) usually fed by Grandparents (or some elders in the family or friends) to the newborn. It is believed that one takes a lot of the personality traits of the person who gave the gudthi.
*pathana: the process of applying liquefied mud to bricks to solidify them. Also used to describe the process of applying cow dung cakes on walls to dry them.
*sangdila: stone-hearted. Most likely the (pen)name of the songwriter.

~

Punjabi bahujan song translated by Gurinder Singh Azad (into Hindi) and Akshay Pathak (into English)

The translators came across this song on youtube during their usual search for Punjabi poetry and songs. The song, as shown in the video,is performed by these two very talented boys in a village in Punjab, Pakistan. The presence of the dhol in the video suggests that they belong to a caste of performers and the words of the song clearly reflect their concerns about the bahujan laboring castes. In the process of translating, we got stuck on some particular words and were fortunately helped by friends from across the border, in particular Farukh Hammad who helped us in getting one of the lines through his friends Jasdeep Singh and Khan Muhammad. If someone can share more details about the young artists, we would be very grateful. 

शुक्रिया बाबा साहेब

Monday, April 14th, 2014

Gurinder Azad

शुक्रिया बाबा साहेब !
आपके चलते
हमें किसी से कहना नहीं पड़ता
कि हम भी इंसान हैं !

उनके अहं को जो भी हो गवारा
लेकिन अब तस्दीक हो चुका है
कि बराबरी थाली में परोस कर नहीं मिलती
आबरू की धारा किसी वेद से नहीं निकलती
बड़ा बेतुका है
कल्पना करके सोना
सुबह अलग सा कोई नज़ारा होगा
या धीरे धीरे सब सही हो जायेगा
अपनेआप !

कुछ मुद्दों पर कोई बहस नहीं होती
जैसे रियायतों में ढला इन्साफ
वेदों धर्मों के मुंह से कंटी छँटी इंसानियत का जाप

कुछ चीज़ों से समझौते नहीं हो सकते
जैसे कि भगवी विचारधारा से

कुछ लड़ाईयां जड़ों की होती हैं
ज़मीन से जुडी होती हैं
वजूद में पिघली होती है
आज हम इन सबसे
खूब आशना हैं !

शुक्रिया बाबा साहेब कि आपके चलते
मैं ये सब लिख पा रहा हूँ
डंके की चोट पे!

~ गुरिंदर आज़ाद

The Farm is Sad – Om Prakash Valmiki

Friday, April 4th, 2014

Translation from Om Prakash Valmiki's Hindi poem 'Khet Udaas Hain

The bird is sad
for the emptiness of the forest.
The children are sad
for – hammered like a nail 
on the doors of the big houses –
this grief of the bird.

The farm is sad —
that even after a full harvest
he, with mortar on his head,
is going up and down the ladder
against that wall being built.

The girl is sad —
till when can she hide the birth.

And the rented hands
are writing on the wall
'To be sad
is against the spirit of India!'.

 

खेत उदास हैं / ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

चिड़िया उदास है
जंगल के खालीपन पर
बच्चे उदास हैं
भव्य अट्टालिकाओं के
खिड़कीदरवाज़ों में कील की तरह
ठुकी चिड़िया की उदासी पर

खेत उदास हैं
भरपूर फ़सल के बाद भी
सिर पर तसला रखे हरिया
चढ़उतर रहा है एकएक सीढ़ी
ऊँची उठती दीवार पर

लड़की उदास है
कब तक छिपाकर रखेगी जन्मतिथि

किराये के हाथ
लिख रहे हैं दीवारों पर
'उदास होना
भारतीयता के खिलाफ़ है !'

Source: From here

Akhil Katyal is a writer and translator based in Delhi. He is an Assistant Professor at the Department of English at Shiv Nadar University. He finished his PhD from SOAS, University of London in 2011 and his poetry, fiction and translations have been published widely.

 

ओम प्रकाश वाल्मीकि: हिंदी साहित्य के स्तम्भ नहीं रहे

Sunday, November 17th, 2013

अनिता भारती

 

om prakash valmiki

दलित साहि्त्य के सशक्त हस्ताक्षर व वरिष्ठ लेखक ओमप्रकाश बाल्मीकि जी का आज सुबह परिनिर्वाण हो गया। वे पिछले एक साल से 'बड़ी आंत की गंभीर बीमारी' से जूझ रहे थे। उनका हिन्दी साहित्य और दलित साहित्य में उनके अवदान और उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रोज उनसे मिलने वालों, फोन करने वालों और उनके स्वास्थ्य में शीघ्र सुधार होने की कामना करने वालों की संख्या हजारों में थी।

ओमप्रकाश बाल्मीकिजी पिछले एक सप्ताह से देहरादून के एक प्राईवेट अस्पताल मैक्स में दाखिल थे। उनके स्वास्थ्य की हालत चिंताजनक थी, इसके बाबजूद वह वे बहुत बहादुरी से अपनी बीमारी से लड़ रहे थे। पिछले साल 10 अगस्त 2013 में उनकी बडी आंत का सफल आपरेशन हुआ था। आपरेशन सफल होने के बाबजूद वे इससे उभर नहीं पाएं।

ओमप्रकाश बाल्मीकि उन शीर्ष लेखकों में से एक रहे है जिन्होने अपने आक्रामक तेवर से साहित्य में अपनी सम्मानित जगह बनाई है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होने कविता, कहानी, आ्त्मकथा से लेकर आलोचनात्मक लेखन भी किया है। अपनी आत्मकथा "जूठन" से उन्हें विशेष ख्याति मिली है। जूठन में उन्होने अपने और अपने समाज की दुख-पीडा-उत्पीडन-अत्याचार-अपमान का जिस सजीवता और सवेंदना से वर्णन किया वह अप्रतिम है। यह एक बहुत बडी उपलब्धी है कि आज जूठन का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. जूठन के अलावा उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में "सदियों का संताप", "बस! बहुत हो चुका" ( कविता संग्रह) तथा "सलाम" ( कहानी संग्रह ) दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र (आलोचना) आदि है। बाल्मीकि जी अब तक कई सम्मानों से नवाजे जा चुके है जिनमें प्रमुख रुप से 1993 में डॉ.अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 1995 में परिवेश सम्मान है।

हिन्दी साहित्य और दलित साहित्य के शीर्ष साहित्यकार का अचानक असमय चले जाना बेहद दुखद है। वे मात्र अभी 63 साल के ही थे। वो अभी दो-तीन साल पहले ही देहरादून की आर्डनेंस फैक्ट्ररी से रिटायर हुए थे। उनका बचपन बहुत कष्ट-गरीब-अपमान में बीता। यही कष्ट-गरीबी और जातीय अपमान-पीडा और उत्पीडन उनके लेखन की प्रेरणा बने। उनकी कहानियों से लेकर आत्मकथा तक में ऐसे अऩेक मार्मिक चित्र और प्रसंगों का एक बहुत बड़ा कोलाज है। वह विचारों से अम्बेडकरवादी थे। बाल्मीकि जी हमेशा मानते थे कि दलित साहित्य में दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है। क्योंकि उनका मानना था कि दलित ही दलित की पीडा़ और मर्म को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। ओमप्रकाश बाल्मीकि जी के अचानक जाने से दलित साहित्य का एक स्तंम्भ ढह गया है. उनकी क्षति बेहद अपूर्णनीय है।

valmiki anita bharti

अनीता भारती जी ओम प्रकाश बाल्मिकीजी के साथ

~~

वाल्मीकि सर, आपसे अपनी चंद मुलाकातों से नहीं

आपकी स्मृति मेरे पुराने अल्हड दिनों से वाबस्ता है

जिनमे, मैंने

आपकी पंजाबी भाषा में अनुदित आत्मकथा

'जूठ' को जिया था

और तब कैसे मुझसे

अपने आप ही

इक खतरनाक अनुशासन छूट हो गया था

अन्दर से जैसे मैं बहुत सध गया था

 

और अपना सच भी तो

यही था/है कि अपने समाज के हस्बे हिसाब

शब्द केवल हर्फ़ नहीं होते

वो गोली भी होते हैं

अंगार भी

वो सैलाब भी होते हैं

पतवार भी

ये आन्दोलन के बीज तो हवाओं पर भी उग सकते हैं

और इनकी जड़ें

मिटटी को तरसा के

खुद, तना, पत्ते, फूल, फल बनने की

ज़िम्मेदारी उठा सकती है

 

लगभाग डेढ़ बरस पहले

जब दीनामणि 'इनसाइट' के दफ्तर आके

'खेत ठाकुर का अपना क्या रे' गीत की

खुद भी और मुझसे भी रिहर्सल करवा रहा था, तब

वही ताक़त मैं इस गीत को गाते हुए

जी रहा था!!

वाल्मीकि सर, आप ज़हन में हमेशा रहोगे

और ताक़त बन के रहोगे

मगर ज़हन में असरदराज़

भावनाओं के कोने

आपको बहुत टूट टूट कर याद करेंगे, सर !!!

~ गुरिंदर आज़ाद

~

ओम प्रकाश वाल्मीकि जी की कुछ चुनिंदा रचनाएं:

सदियों का संताप

दोस्‍तो !
बिता दिए हमने हज़ारों वर्ष
इस इंतज़ार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
ज़हरीले पंजों समेत.

फिर हम सब
एक जगह खडे होकर
हथेलियों पर उतार सकेंगे
एक-एक सूर्य
जो हमारी रक्‍त-शिराओं में
हज़ारों परमाणु-क्षमताओं की ऊर्जा
समाहित करके
धरती को अभिशाप से मुक्‍त कराएगा !

इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को
पारदर्शी पत्‍तों में लपेटकर
ठूँठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर
टाँग दिया है
ताकि आने वाले समय में
ताज़े लहू से महकती सड़कों पर
नंगे पाँव दौड़ते
सख़्त चेहरों वाले साँवले बच्‍चे
देख सकें
कर सकें प्‍यार
दुश्‍मनों के बच्‍चों में
अतीत की गहनतम पीड़ा को भूलकर

हमने अपनी उँगलियों के किनारों पर
दुःस्‍वप्‍न की आँच को
असंख्‍य बार सहा है
ताजा चुभी फाँस की तरह
और अपने ही घरों में
संकीर्ण पतली गलियों में
कुनमुनाती गंदगी से
टखनों तक सने पाँव में
सुना है
दहाड़ती आवाज़ों को
किसी चीख़ की मानिंद
जो हमारे हृदय से
मस्तिष्‍क तक का सफ़र तय करने में
थक कर सो गई है ।.

दोस्‍तो !
इस चीख़ को जगाकर पूछो
कि अभी और कितने दिन
इसी तरह गुमसुम रहकर
सदियों का संताप सहना है !

(जनवरी, 1989)

~

शंबूक का कटा सिर

जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर
घड़ी भर सुस्‍ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्‍कारें गूँजने लगी
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों लाशें
ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर ।

मैं उठकर भागना चाहता हूँ
शंबूक का सिर मेरा रास्‍ता रोक लेता है
चीख़-चीख़कर कहता है–
युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूँ
बार-बार राम ने मेरी हत्‍या की है ।

मेरे शब्‍द पंख कटे पक्षी की तरह
तड़प उठते हैं–
तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्‍वी
यहाँ तो हर रोज़ मारे जाते हैं असंख्‍य लोग;
जिनकी सिसकियाँ घुटकर रह जाती है
अँधेरे की काली पर्तों में

यहाँ गली-गली में
राम है
शंबूक है
द्रोण है
एकलव्‍य है
फिर भी सब ख़ामोश हैं
कहीं कुछ है
जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्‍त से सनी उँगलियों को महिमा-मंडित ।

शंबूक ! तुम्‍हारा रक्‍त ज़मीन के अंदर
समा गया है जो किसी भी दिन
फूटकर बाहर आएगा
ज्‍वालामुखी बनकर !

(सितंबर 1988)

~

युग-चेतना

मैंने दुख झेले
सहे कष्‍ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने
फिर भी देख नहीं पाए तुम
मेरे उत्‍पीड़न को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको ।

इतिहास यहाँ नकली है
मर्यादाएँ सब झूठी
हत्‍यारों की रक्‍तरंजित उँगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जड़ी अँगूठियाँ ।

कितने सवाल खड़े हैं
कितनों के दोगे तुम उत्‍तर
मैं शोषित, पीड़ित हूँ
अंत नहीं मेरी पीड़ा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाए
मेरी संपत्ति पर ।

मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूँ
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्‍कासित हूँ
प्रताडित हूँ ।

इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जर हूँ
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको ।

(अक्‍टूबर 1988)

~

 ठाकुर का कुआँ

चूल्‍हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।

कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्‍ले ठाकुर के
फिर अपना क्‍या ?
गाँव ?
शहर ?
देश ?

(नवम्बर, 1981)

~

जूता

हिकारत भरे शब्द चुभते हैं
त्वचा में
सुई की नोक की तरह
जब वे कहते हैं–
साथ चलना है तो क़दम बढ़ाओ
जल्दी-जल्दी

जबकि मेरे लिए क़दम बढ़ाना
पहाड़ पर चढ़ने जैसा है
मेरे पाँव ज़ख़्मी हैं
और जूता काट रहा है

वे फिर कहते हैं–
साथ चलना है तो क़दम बढ़ाओ
हमारे पीछे-पीछे आओ

मैं कहता हूँ–
पाँव में तकलीफ़ है
चलना दुश्वार है मेरे लिए
जूता काट रहा है

वे चीख़ते हैं–
भाड़ में जाओ
तुम और तुम्हारा जूता
मैं कहना चाहता हूँ —
मैं भाड़ में नहीं
नरक में जीता हूँ
पल-पल मरता हूँ
जूता मुझे काटता है
उसका दर्द भी मैं ही जानता हूँ

तुम्हारी महानता मेरे लिए स्याह अँधेरा है ।

वे चमचमाती नक्काशीदार छड़ी से
धकिया कर मुझे
आगे बढ़ जाते हैं

उनका रौद्र रूप-
सौम्यता के आवरण में लिपट कर
दार्शनिक मुद्रा में बदल जाता है
और, मेरा आर्तनाद
सिसकियों में

मैं जानता हूँ
मेरा दर्द तुम्हारे लिए चींटी जैसा
और तुम्हारा अपना दर्द पहाड़ जैसा

इसीलिए, मेरे और तुम्हारे बीच
एक फ़ासला है
जिसे लम्बाई में नहीं
समय से नापा जाएगा।

~~~

(प्रख्यात कहानीकार, आलोचक और कवियत्री अनीता भारती दलित हिंदी साहित्य का एक मक़बूल नाम है। गुरिंदर आज़ाद हिंदी एवं पंजाबी भाषा में अपनी लेखनी से दलित आवाज़ बुलन्द करते रहे हैं. दिल्ली और आसपास के क्षेत्र में दलित युवाओं के बीच वे सक्रीय हैं।)

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