जितेन्द्र सुना
मुथुकृष्ण्न की संस्थानिक हत्या के विरोध में 16 मार्च, 2017, को बपसा द्वारा आयोजित प्रदर्शन मे भाषण; अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद: अंजली
मेरा नाम जितेन्द्र सुना है और मैं उड़ीसा के कालाहांडी जिले के एक सुदूर गाँव पोउर्केला से हूँ| मैंने अपनी हाई स्कूल की पढाई बी. आर. अम्बेडकर उच्च विद्यापीठ पोउर्केला से की, लेकिन उस दौरान मुझे यह नहीं पता था कि डॉ. अम्बेडकर कौन थे? जब मैं आठवीं कक्षा में था उस समय मैंने अपनी माँ को खो दिया, मेरी माँ हमारे परिवार की मुखिया थी| मेरी माँ हमें साइंस स्कूल में पढ़ाना चाहती थी लेकिन उनकी मृत्यु के बाद मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि हम साइंस स्कूल में पढ़ सके| अपनी बारहवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं कुछ पैसे कमाने के लिए दिल्ली आ गया| मैं अपने भाई के साथ काम पर जाता था| मेरा भाई उस समय आई. जी. एल. (इन्द्रप्रस्थ गैस लिमिटेड) में सहायक के पद पर काम किया करता था, मैंने भी वहां सहायक के पद पर काम करना शुरू किया | वहां हम लोगों के साथ एक और आदमी भी काम करता था, जिसका नाम अभी मुझे याद नहीं है, लेकिन उसका आखिरी नाम मुरारी था | वह अक्सर मेरे भाई से पूछा करता था, “सुना का मतलब क्या है”? मेरा भाई हमेशा इस सवाल से बचने की कोशिश करता और कभी अपना गोत्र और जाति नहीं बताता था| मैंने दिल्ली में रहने के दौरान इस असहजता को महसूस किया | एक साल काम करने के बाद, मैं अपने गाँव वापिस चला गया और वहां बी. ए. में एडमिशन लिया |
अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव की घटनाएँ मेरे गाँव और पूरे उड़ीसा में घटने वाली बर्बरतापूर्ण घटनाएं हैं | बचपन में मेरा एक दोस्त था जो मेरे ही गाँव से था | मैं अपने उस दोस्त को खास अवसरों पर अपने घर खाने पर आमंत्रित करता था| वह बहुत मिन्नतें करने पर मेरे घर में कुछ खाता था| जब भी मैं उसके घर जाता, तो मुझे उसके घर के बाहर कुछ खाने को दिया जाता, यहाँ तक की मुझे घर के बरामदे तक में नहीं बैठने दिया जाता था| उसके घर खाना खाने के बाद मुझे बर्तन धोकर वापिस करने पड़ते| ऐसा व्यवहार मेरे लिए इसलिए होता था क्योंकि मैं दलित समुदाय से था| ऐसा छुआछूत का व्यवहार रोजमर्रा की बात थी; यह अछूतपन हमारे जीवन में सामान्य व्यवहार का हिस्सा था| उस समय मैं यह नहीं सोच सकता था कि यह सही है या गलत, क्योंकि मैंने यह व्यवहार अपने जन्म से देखा था | एक दिन अपने दोस्त से बाते करते-करते मैं उसके घर के दरवाजे तक चला गया, उसकी माँ अचानक डर गई जब उसने देखा कि मैंने दरवाजे को छू दिया है| वह तुरंत मुझ पर चिल्लाई और बोली, “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे घर में आने की, तुम छत से गिरे पानी की तरह हो जो घर में नहीं आ सकता”| मुझे यह सुनकर धक्का लगा | मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या कहूँ| मैं वहां एक मिनट तक जड़ खड़ा रहा| उसके बाद मैं बैठ गया और जब बात करने की स्थिति में आया तो मैंने अपने दोस्त से पूछा, “हेंता केन (क्या ऐसा है)?” तब उसने कहा, “हाँ, लोग क्या कहेंगे अगर तुम घर के भीतर आओगे तो, ये ठीक नहीं है”| इस दुर्घटना के बाद मैं न ढंग से सो सका, न खा सका और न ठीक से बात कर सका, मैं बहुत ही व्यथित और उदास हो गया था| इसके बाद मैंने अपने दोस्त के घर जाना बंद कर दिया | उस वक्त मुझे अस्पृश्यता उन्मूलन कानून [Prevention of Atrocities (SC/ST)] के बारे में नहीं पता था कि कोई कानून ऐसा है जो अस्पृश्यता और छुआछूत के व्यवहार के खिलाफ है | दलितों को अगर इस कानून के बारे में जानकारी है, तब भी वे इन घृणित और अपमानजनक प्रथाओं के बारे में कुछ नहीं कर पाते है|
जितेन्द्र सुना के संबोधन का लिंक:https://www.youtube.com/watch?v=_h3JdObYGUs
मेरे ग्रेजुएशन के अंतिम वर्ष में एक दोस्त ने बताया कि नागपुर में फ्री सिविल सर्विस कोचिंग सेंटर है जहाँ रहने और खाने की मुफ्त सुविधा भी है | अत: मैंने नागपुर जाने के बारे मेंसोचा | मेरी बहन ग्रेजुएशन करने के बाद घर पर खाली बैठी थी, उसने कहा, “मैं यहाँ क्या करूंगी, मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी |” फिर हम दोनों भाई-बहन ने नागपुर जाने का निर्णय किया | नागपुर में यहाँ सिविल सर्विस कोचिंग की बजाय आठ महीने का बाबासाहेब अम्बेडकर और बौद्ध धर्म पर कोर्स था | हमें वहां भारतीय इतिहास, जातिप्रथा, अस्पृश्यता और बौद्ध धर्मआदि के बारे में पढ़ाया गया| इस दौरान मुझे बाबा साहेब अम्बेडकर कीकुछ रचनाएँ और अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए काम करने वाले विचारकों को पढ़ने का मौका मिला |कुछ सवाल हमेशा मेरे दिमाग में आते थे– दलितों का इतिहास क्यों नहीं है, हमें अम्बेडकर, फुले और बुद्ध के बारे में स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ाया जाता? तब मैंने अपना इतिहास खुद लिखने के लिए एक इतिहासकार बनने का निर्णय लिया| नागपुर में मैं बहुत सारे विद्यार्थियों से मिला जो नागलोक स्थित नागार्जुन ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट के अलग-अलग केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे थे | उन्होंने मेरी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय सहित कई विश्वविद्यालयों में आवेदन पत्र भरने में मदद की|
2012 में, मैंने एम. ए. के लिए गुजरात सेंट्रल यूनिवर्सिटी, बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, लखनऊ और जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में आवेदन किया | दाखिले के लिए पहली बारदिए गये एंट्रेंस एग्जाम में मैं जे. एन. यू. के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज की परीक्षा में सफल नहीं हो पाया | लेकिन मैंने गुजरात सेंट्रल यूनिवर्सिटी और बी. बी. ए. यू. का एंट्रेंस एग्जाम पास कर लिया | मैंने बी. बी. ए. यू. के हिस्ट्री सेंटर में दाखिला लिया| लेकिन आर्थिक समस्या के चलते मैंवहाँ नहीं रह सकता था| इसलिए मैंने जे. एन. यू. में दोबारा सन् 2013 में सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज में दाखिले के लिए एंट्रेंस एग्जाम दिया| पहली बार मैं बेहतर इंग्लिश नहीं लिख पाया था और साथ ही साथ यहाँ केब्राह्मणवादी नजरिए के खिलाफ योजना भी नहीं बना पाया था | दूसरी बार मैंने एंट्रेंस एग्जाम देते वक्त जो योजना बनाई, उसमें कांग्रेस, गाँधी और बाकि समाज सुधारक आन्दोलनों आदि के आलोचनात्मक मूल्यांकन के बजाय, मैंने बहुत ही पारम्परिक ढ़ंग से गाँधी, कांग्रेस और ब्राह्मणवादी नजरिए को जवाब लिखते वक़्त केंद्र में रखा| इस बार, मैं अपने इस तरीके से एम. ए. मॉडर्न हिस्ट्री, जे. एन. यू. का एंट्रेंस एग्जाम पास कर गया|
जे. एन. यू. में असाइनमेंट्स, सेमिनार पेपर और चुप रहने की राजनीति मेरे लिए नई थी| एम. ए. में अपने शुरूआती दिनों से लेकर एम. ए. पूरा होने तक मुझे बहुत सारी समस्याओं का लगातार सामना करना पड़ा| अपने पहले असाइनमेंट में, मैं सही तरीके से फुटनोट्स नहीं दे सका, क्योंकि मुझे इसका कोई अंदाजा नहीं था कि फुटनोट क्या होता है और न ही कभी इसके बारे में सुना था; अपनी पिछली स्कूल/कॉलेज की शिक्षा में भी मुझे असाइनमेंट के बारे में भी कुछ नहीं पता था| दूसरे शब्दों में, मुझे अकादमिक लेखन का कोई अनुभव नहीं था| लेकिन अपने सहपाठियों का काम देखकर और दोस्तों की मदद से मैंने अपना लेखन सुधारना शुरू किया | ऐसी कई सारी घटनाओं की श्रृंखला थी जिसमें मुझे अपमान, भेदभाव और बहिष्कार का सामना करना पड़ा| इनमें से बहुत सारी घटनाओं को मैं भूल चुका हूँ और कुछ को मैं अब खास तौर पर पहचान नहीं सकता | यहाँ कुछ कड़वे और आक्रामक अनुभव है जिनसे मैं अपने दो साल के पोस्ट-ग्रेजुएशन के दौरान सेण्टर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज में गुजरा, जहाँ मेरा प्रिय थालैवा (मुत्थु कृष्णन) एक इतिहासकार बनने के सपने के साथ पढ़ रहा था; अपने समुदाय का कहानीकार और अब वह चला गया, अपने भेदभाव और अत्याचार के अनुभव की कहानियाँ सुनाए बिना,जो उसने अपने जीवन और जे. एन. यू. के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज में झेले थे |
एक कोर्स में, मैंने एक असाइनमेंट सही ढ़ंग से फुटनोट्स, उद्धरण, प्रमाण के साथ आलोचनात्मक और साथ ही साथ सुसंगत तर्क देते हुए लिखा| प्रोफेसर इंचार्ज ने मुझसे पूरी कक्षा के सामने, मेरे सभी सहपाठियों के सामने असाइनमेंट के बारे में पूछा, वह बोले, “क्या यह सचमुच तुमने लिखा है या किसी और ने तुम्हारे लिए इसे लिखा है?” मैं दंग रह गया | मैंने कहा, “सर, मैंने खुद लिखा है|” फिर भी वह जोर देकर बोले: “मुझे सच बताओ मैं कुछ नहीं करूँगा|” मैंने जवाब दिया, “सर, मैंने फुटनोट लिखना सीखा है और अपने लिखने के तरीके को बेहतर बनाया है और मैंने असाइनमेंट भी खुद किया है |” फिर भी उन्होंने मुझ पर विश्वास नहीं किया| मैंने आगे अपने पक्ष में तर्क नहीं किया क्योंकि प्रोफेसर यह मानने को ही तैयार नहीं था कि अपना असाइनमेंट वास्तव में मैंने ही लिखा था| इसलिए मैंने उनके साथ आगेतर्क नहीं किया| उस दिन मुझे एहसास हुआ धीरज और हिम्मत भी उनके अपमान और नकार के हिस्से के साथ आते हैं।
एक अन्य “नेशनल मूवमेंट” नामक कोर्स में एक प्रोफेसर ने हमें पढ़ाया कि कैसे बाल गंगाधर तिलक एक राष्ट्रवादी, महान स्वतंत्रता सेनानी और एक उदार चिन्तक थे| कक्षा में बहुत सारे विद्यार्थी चुप थें क्योंकि या तो वो इस पढ़ाने के तरीके को पसंद कर रहे थे या बिना किसी बहस में जाए अच्छे ग्रेड पाना चाहते थे | मैंने तिलक के लेखन पर असाइनमेंट लिखते हुए दिखाया कि कैसे वह साम्प्रदायिक व जातिवादी था और तिलक का स्वराज का विचार स्वतंत्रता के लिए नहीं बल्कि कुछ भारतीयों के प्रमुख स्थिति को बनाए रखने के लिए था | प्रोफेसर इस बात से मुझ पर गुस्सा हो गई, उनका चेहरा लाल हो गया| उसने मुझसे कहा, “तुम कैसे ये कह सकते हो कि वह एक महान राष्ट्रवादी नहीं थे बल्कि जातिवादी और सांप्रदायिक थे?” तब मैंने उन्हें तिलक के लेखन के उद्धरण दिखाए और उन उद्धरणों की पेज संख्या बताई जो मेरे मतों को किसी भी संदेह और सवालों से परेपुष्ट करती थी और स्वयं उन प्रोफेसर महोदया पर सवाल उठाती थी| उन्होंने मेरी बहस के मुद्दे और तथ्यों को दरकिनार करकेअन्य मुद्दे पर चर्चा शुरू कर दी| मुझे एक बार फिर से चुप करा दिया गया|
भारत विभाजन से सम्बंधित एक कोर्स में, मैंने बाबासाहेब अम्बेडकर की किताब ‘थॉट्स ओं पाकिस्तान’ का बुक रिव्यु किया| यह लगभग 10 विद्यार्थियों की सामूहिक चर्चा थी| मैंने राष्ट्रवाद और विभाजन से सम्बंधित कुछ मेथोड़ोलोजिक्ल सवाल लिखे और पूछे| बी. आर. अम्बेडकर लिखने के बजाय, मैंने अपने बुक रिव्यु में बाबासाहेब अम्बेडकर लिखा | प्रोफेसर ने मुझे ‘बाब साहेब’ शब्द हटाने के लिए कहा| उस प्रोफेसर ने कहा कि अकादमिक लेखन में तुम ऐसे उपाधि (सम्मानपूर्वक लगाया जाने वाला नाम) नहीं लगा सकते| मैंने कहा, “ठीक है मैम, मैं इसे बदल दूँगा |” मेरे बाद, एक विद्यार्थी ने नेहरु पर अपना पेपर प्रस्तुत किया, अपना पेपर पढ़ने से पहले उसने कहा, “सॉरी मैम मैंने भी जितेन्द्र की तरह एक गलती कर दी है| मैंने ‘पंडित नेहरु’ लिखा है| प्रोफेसर मुस्काई और बोली ‘नहीं इसमें कोई समस्या नहीं है तुम उनका सम्मान कर रहे हो”| मुझे प्रोफेसर के इस दोहरे रवैये पर अचम्भा हुआ| ऐसा क्यों है कि अगर हम जाति उन्मूलन के लिए लड़ने वाले विचारकों और मुस्लिम विचारकों या नेताओं के लिए उपाधि इस्तेमाल करते है तो, यह गैर-अकादमिक या शिक्षाविदों के लिए एंटी-थीसिस बन जाता है, दूसरी ओर ‘पंडित’ उपाधि का इस्तेमाल ब्राह्मण के लिए आदरणीय और शिक्षाविदों के लिए स्वीकार्य हो जाता है?
जे. एन. यू. में आधुनिक भारत के एक प्रमुख इतिहासकार जो उस समय डीन ऑफ़ सोशल साइंस हुआ करते थे, वो हमें एक कक्षा में उस समय एक त्रिकोण खींचकर पढ़ा रहे थे| उन्होंने एक आड़ी रेखा खींची और उसे राष्ट्रीय कांग्रेस बताया| उन्होंने कहा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी नहीं थी, यह हर तरह के शोषण के विरुद्ध एक आन्दोलन थी| फिर उन्होंने एक उर्ध्वाधर रेखा खींची और उसे भारत का सांप्रदायिक और जातिवादी इतिहास कहा| इस पंक्ति में उन्होंने उन सब शक्तियों को एकजुट किया जो कांग्रेसके विरोधी थे और कांग्रेस की राजनीति से सहमत नहीं थे, उनके अनुसार ये सब जातिवादी और साम्प्रदायिक शक्तियां थी| इस ढ़ांचे में, उन्होंने बी. आर. अम्बेडकर, पेरियार रामास्वामी को जातिवादी कहते हुए वर्णित किया| मैंने खड़े होकर पूछा “यदि पेरियार जातिवादी थे और उपनिवेशवादी दमन के खिलाफ नहीं लड़ रहे थे तो उन्होंने गाँधी के साथ हाथ क्यों मिलाया और छ: सालों तक राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए काम क्यों किया? पेरियार ने यह दावा करते हुए कि कांग्रेस एक जातिवादी और ब्राह्मण वर्चस्ववादी पार्टी है को क्यों छोड़ दिया|” मेरा सवाल प्रोफेसर के ब्राह्मणवादी ईगो और ज्ञान पर ‘हमला’ था जिसने उनको जबरदस्त झटका दिया, खासकर जब मैंने लगभग 50 विद्यार्थियों के सामने उनसे ये सवाल पूछा| वो पूरी तरह से उलझन में थे कि कैसे वो मेरे सवाल से निपटे| आखिरकार उन्होंने मुझसे कहा, ‘मैं अभी तुम्हारे सवाल का जवाब देने की स्थिति में नहीं हूँ|’ उन्होंने मेरे इस सवाल के जवाब को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया और कभी जवाब नहीं दिया| मैं आज भी उन प्रोफेसरसे अपने उस सवाल के उत्तर का इन्तजार कर रहा हूँ|
एक और घटना जो है, उसमें लगभग 15 विद्यार्थियों के समूह में असाइनमेंट पर चर्चा हो रही थी| बात करते वक्त, उन्हीं प्रोफेसर ने कहा कि ‘भारत में जाति व्यवस्था नहीं है, और न ही जातिगत भेदभाव, भारत में छुआछूत भी नहीं है| “यह मेरे लिए बहुत ही नृशंस और हिंसककमेंट था, समाज विज्ञान का एक प्रोफेसर ऐसा कैसे कह सकता है”? अपनी पूरी जिन्दगी मैं जातिगत भेदभाव का शिकार रहा और एक ब्राह्मण मुझे कह रहा है कि भारत में अस्पृश्यता नहीं है| मुझे गुस्सा आया, और मैं कक्षा के बीच एकाएक बोल उठा, “मैं एक दलित छात्र हूँ और मैंने अनुभव किया है कि जाति और अस्पृश्यता क्या है| मैं अस्पृश्यता और जातिगत नृशंसता का शिकार अपने बचपन से रहा हूँ”| तब प्रोफेसर ने स्थिति से निकलने के लिए और मुझ पर कृपा दिखाने की दृष्टि से कहा, “हाँ, तुम सही हो सकते हो, हम इसके बारे में बात करेंगे| प्लीज मुझसे कक्षा के बाद मिलना”| कक्षा के बाद हमेशा की तरह न ही वो मुझसे मिले और न ही उन्होंने मुझसे मेरे जातिगत अपमान के अनुभवों के बारे में पूछा|
मैंने एम.ए. के दौरान “जनजाति और संस्कृति” नामक एक कोर्स का चयन किया| बुखार के कारण मैं इस विषय का एक असाइनमेंट नियत तिथि पर नहीं जमा कर सका| मैं संबंधित विषय की प्रोफेसर से मिला और उन्हें बताया कि मुझे बुखार था इसलिए मैं अपना असाइनमेंट समय पर जमा नहीं कर पाया और उनसे अनुरोध किया कि “प्लीज मैम मुझे असाइनमेंट जमा करने के लिए कुछ समय दे|” तो उन्होंने कहा, “मैं अब कुछ नहीं कर सकती, जमा करने की तिथिजा चुकी है|” कई बार अनुरोध करने के बाद और मेडिकल सर्टिफिकेट देने पर, उन्होंने मुझे अपना मोबाइल नंबर दिया असाइनमेंट के विषय के बारे में बात करने के लिए| उन्होंने मुझसे कहा, “तुम मुझे फ़ोन करना, मैं तुम्हें विषय बता दूँगी जिस पर तुम अपना असाइनमेंट लिख सकते हो|” जब मैंने उन्हें फ़ोन किया तो उन्होंने कहा कि वह व्यस्त है और मुझे बाद में फ़ोन करेंगी | मैंने उनके फ़ोन का इंतजार किया, लेकिन उन्होंने मुझे फ़ोन नहीं किया| फिर मैंने उन्हें दोबारा फ़ोन किया | उन्होंने उसके बाद मेरा फ़ोन नहीं उठाया, आखिर में, मैं उनसे सेण्टर में मिला| उन्होंने कहा, “मैं अब कुछ नहीं कर सकती, तिथि जा चुकी है और मेरे हाथ में अब कुछ नहीं है|” इस तरह मुझे इस कोर्स में C- ग्रेड मिला|
एक अन्य प्रोफेसर के साथ, मैंने अपना सेमिनार पेपर किया | मैं जनजातियों पर काम करना चाहता था| ऐसा इसलिए क्योंकि मैंने इतिहास और अन्य लेखन में आदिवासियों का सिर्फ रोमांटिक संस्करण का चित्रण ही देखा था| मैं उड़ीसा में आदिवासियोंका जाति-विरोधी और ब्राह्मणवादी संघर्ष वापिस लाना चाहता था| मुझे मेरे शिक्षक ने बताया, “आदिवासियों पर बहुत सारा काम पहले ही हो चुका है तुम दोबारा क्यों करना चाहते हो | शोषितों का बौद्धिक शोषण मत करो” | ऐसा क्यों है कि अगर ब्राह्मण दलित-आदिवासी पर काम करते है, तो यह बौद्धिक शोषण क्यों नहीं है? और यदि एक दलित या आदिवासी अपने समुदाय पर काम करना चाहता है तो उन्हें बौद्धिक शोषण करना क्यों कहा जाता है| इस तरह के उत्साहभंग का सामना मुझे सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज में पढ़ते वक़्त करना पड़ा|
किसी तरह, मैं मास्टर ऑफ़ आर्ट्स इन मॉडर्न हिस्ट्री में ऐसे अंकों से पास होने में सफल रहा कि मैं NET परीक्षा में भी नहीं बैठ सकता था| इसके बाद, मैंने सेंटर ऑफ़ हिस्टोरिकल स्टडीज, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डिस्क्रिमिनेशन एंड एक्सक्लूशन और एक अन्य सेंटर में एम. फिल./पीएच. डी. में दाखिला लेने की तैयारी की| मुझे पूरा भरोसा था कि मैं एम. फिल/पीएच. डी. के लिए एंट्रेंस एग्जामपास कर लूँगा और ऐसा ही हुआ| मैंने एंट्रेंस एग्जाम अच्छे नम्बरों से पास किया | मैंने अपना शोध प्रारूप “म्यूजिक अज़ ए फॉर्म ऑफ़ रेजिस्टेंस” विषय पर तैयार किया और अपने एक प्रोफेसर के पास गया जिनके साथ मैंने एक सेमिनार पेपर किया था| उन्होंने मुझे बताया कि यह शोध के लिए अच्छा विषय है और काम करने के लिए एक रूचिकर क्षेत्र भी| उन्होंने मुझे विषय आधारित कुछ पुस्तकें और शोध कार्य सुझाए| साक्षात्कार के दिन, जब मैं साक्षात्कार कक्ष में गया, तो वहां सन्नाटा था, सब मुझे घूर रहे थे, मैंने अपने शोध प्रारूप की एक-एक प्रति सभी प्रोफेसर को दी| जब मैं कक्ष में दाखिल हुआ, तो एक प्रोफेसर जिन्होंने मुझे C- ग्रेड दिया था अचम्भित रह गई| वह सोच नहीं सकती थी कि मैं एंट्रेंस एग्जाम पास करने में सफल हो पाऊँगा| उन्हें इतना अचम्भा हुआ कि वह व्यंगात्मक मुस्कान के साथ, खुद को यह पूछने से नहीं रोक पाई, “ओह! तुम्हारा हो गया?” मैंने आत्मविश्वासपूर्ण तरीके से उनकी आँखों में आँखे डालकर जवाब दिया, “हाँ मैम हो गया” (हाँ मैम, मेरा लिखित परीक्षा में चयन हो गया)| मुझे याद है इंटरव्यू पैनल में सभी ब्राह्मण थे| उन्होंने मुझे कुछ समय शोध प्रारूप प्रस्तुत करने के लिए दिया| उसके बाद उन्हीं स्त्री प्रोफेसर ने मुझसे साक्षात्कार में तीन सवाल पूछे|
मुझसे केवल ये तीन सवाल पूछे गए :
1) तो जितेन्द्र तुम्हारे एम ए में क्या ग्रेड थे?
2) तुमने अपना ग्रेजुएशन किस यूनिवर्सिटी से पूरा किया?
3) ग्रेजुएशन में तुम्हारे क्या ग्रेड थे?
इन सवालों के बाद, सभी प्रोफेसर चुप बैठे रहे, मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे कोई अजूबा प्राणी उनके पवित्र स्थान में घुस आया हो| मेरे शोध प्रारूप और जिस विषय में मुझे रूचि थी उससे एक भी सवाल नहीं पूछा गया| मेरे लिए उनका यह बर्ताव नया नहीं था और मुझे उनसे कोई उम्मीद भी नहीं थी | जिस उत्पीड़न कामैंने सामना किया था, उसके बाद मैं उनका चेहरा भी नहीं देखना चाहता था | इस तरह मैंने खुद को ऐसे क्रूर ब्राह्मणवादी केंद्र में शोध जारी न रखने के लिए तैयार किया| मैंने सी. एच. एस. के एंट्रेंस एग्जाममें 43 अंक प्राप्तकिए| अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों के लिए कट-ऑफ अंक 48 थे| मुझे सी. एच. एस. से बाहर फेंक दिया गया| एम ए के दौरान मैंने एक विषय में दलित इतिहास के बारे में पढ़ा| इसलिए मैंने अपने आप को सी. एस. डी. ई., जे एन. यू. में शोध करने के लिए तैयार किया| मेरा चयन सी. एस. डी. ई. में सामान्य श्रेणी में हुआ और वहां मैंने एडमिशन लिया| दुर्भाग्य से, सी. एस. डी. ई. सेंटर को सरकार द्वारा लक्षित किया जा रहा है और समय पर समुचित फण्ड भी नहीं मिल रहा है| अब ये अफवाहें भी आ रही है कि सी. एस. डी. ई. सेंटर को वर्तमान सरकार द्वारा बंद किया जा रहा है |
और भी कई कहानियाँ हैं| लेकिन अब कक्षा और विद्यार्थियों की बात करते है| ज्यादातर विद्यार्थी ‘कॉन्वेंट’ स्कूलों में पढ़े हुए या दिल्ली यूनिवर्सिटी और किसी प्रतिस्थापित यूनिवर्सिटी से थे| कक्षा का संयोजन ऐसा था कि ब्राह्मण और उच्च जाति के विद्यार्थी कक्षा में दबदबा बनाए हुए थे| सबका यही मानना था कि अगर आप तोते की तरह धाराप्रवाह इंग्लिश बोलने में समर्थ है, तो आप बुद्धिमान भी हैं| स्वर्ण विद्यार्थियों का अपना घेरा था, खास तरह का घेरा| बाबासाहेब की जाति के गठन की धारणा का प्रयोग करते हुए कहे तो, यह एक ‘बंद घेरे वाली कक्षा’ थी जहाँ विद्यार्थियों के कुछ समूह स्वयं को जोड़े हुए अपने पवित्र ब्राह्मणवादी क्षेत्र की घेराबंदी किए हुए थे ताकि अन्य लोग इसमें प्रवेश न कर सके| दूसरों को बाहर रखने की और स्वयं का यह घेरा बनाने की प्रवृति उनकी अपनी जातिगत पहचान और श्रेष्ठता उनकी अतिसंवेदनशीलता का उत्पाद है जो दूसरों को निम्न और हीनतर प्राणी समझता है| यह घेराबंदी हो सकता है जानबूझ कर न की गई हो लेकिन यह क्षेत्र बहुत ही ब्राह्मणवादी, हिंसक और दमित करने वाला है, इतना कि यह दूसरों को उस क्षेत्र में शामिल होने की अनुमति नहीं देता| मेरे दो साल के एम. ए. के दौरान सी. एच. एस. में मेरे बमुश्किल कोई दोस्त रहे, जैसा कि मुथुकृष्णन ने भी अनुभव किया| मेरे तीन-चार क्लासमेट और दोस्त थे लेकिन वो मेरे विषय से नहीं थे, वे प्राचीन इतिहास के विद्यार्थी थे| वे ओ. बी. सी. केटेगरी से थे, हम एक-दूसरे की असाइनमेंट लिखने में मदद करते थे, खासकर एक-दूसरे की इंग्लिश भाषा लिखने में| मैं सेंटर सिर्फ क्लास लेने, औपचारिक काम से, असाइनमेंट प्रस्तुत करने के लिए और शिक्षकों से कुछ पूछने के लिए जाता था, वरना मैं अपना समय अपने उन दोस्तों के साथ गुजारता था जो मेरे सेंटर से नहीं थे| मुझे याद है हम में से कुछ शिक्षकों से आलोचनात्मक सवाल पूछा करते थे जिसके लिए हमें भेदभाव का सामना करना पड़ता था| मैं ही एकमात्र ऐसा इंसान था जो गैर-पारम्परिक सवाल पूछा करता था, ज्यादातर सवाल अम्बेडकरवादी नजरिए से पूछे जाते थे| कुछ विद्यार्थियों के अलावा, लगभग सभी विद्यार्थी कक्षा में चुप्पी साधे रहते थे| यह चुप्पी एक तरह की राजनीति थी, यह चुप्पी ब्राह्मणवादी नैरेटिव के साथ समझौते की चुप्पी थी, और यह कक्षा में बेहतर ग्रेड पाने के लिए एक रणनीति भी थी| मेरी एक दोस्त थी जो दलित पृष्टभूमि से आती थी लेकिन एक सम्पन्न परिवार से थी, और धाराप्रवाह इंग्लिश बोलती थी| वह अपने घर से क्लास लेने के लिए आती थी, ज्यादातर समय वो चुप और परेशान रहती थी| मैंने उसके इस व्यवहार को देखा और उससे बात करनी शुरू की | मैंने उससे पूछा, “क्या हुआ, तुम क्लास में लगातार नहीं आती हो, कोई समस्या है क्या, तुम ठीक नहीं लग रही हो ?” उसने कहा कि उसे क्लास में अकेलापन महसूस होता है| उसे क्लास में बाहरी महसूस होता है | वह अब सेंटर में नहीं रहना चाहती | अंततः एक साल बाद वो अपना एम. ए. पूरा किए बिना सी. एच. एस., जे. एन. यू. छोड़कर चली गई और किसी अन्य विश्वविद्यालय में उसने दाखिला ले लिया |
मुथुकृष्णन, जिसे प्यार से सब रजनी कृष नाम से जानते थे, जे. एन. यू. एक इतिहासकार बनने की उच्च आकांक्षाएँ और सपनें लेकर आया था| वह रोहित वेमुला के न्याय के लिए सक्रिय रूप से लड़ा | उसका एडमिशन होने के कुछ महीने बाद उसे झेलम हॉस्टल मिला जहाँ मैं रहता हूँ| मैं उसे थालैवा पुकारता था, उसे भी thalaiva कहलाना पसंद था | मैंने रजनी को एक बार चेताया भी था, “तुम्हें अपने सी. एच. एस. सेंटर में सतर्क रहने की जरूरत है| तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि तुम क्लास में कैसे सवाल पूछ रहे हो|तुम ध्यान से रहो| यह सेंटर बहुत ही ब्राह्मणवादी है”| वह मुझसे कहता था कि “आई नो दिज़ पीपल ब्रदर, आई विल हैंडल इट”| खुद को बेहतर बनाने के लिए वह अपना ज्यादातर समय सेंटर और लाइब्रेरी में गुजारता था| यह साबित करने के लिए कि वह किसी स्वर्ण से कम नहीं है | मैं उस दबाव, अकेलेपन,बहिष्कार और उत्पीड़न को महसूस करता हूँ जिससे रजनी सेंटर में गुजर रहा था| उसने अपने अनुभवों को अपने दोस्तों के साथ साझा किया| मुथुकृष्णन ने कहा कि उसे ऐसे देखा और उसके साथ ऐसा बर्ताव किया जाता है जैसे वह मृत व्यक्ति हो |
2008-09 में, बारहवीं कक्षा पास करने के बाद मैं यहाँ दिल्ली में था, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी के निकट इन्द्रप्रस्थ गैस लिमिटेड, सेक्टर 3, मुनिरका में काम करता था | मैंने कभी उच्च शिक्षा के बारे में नहीं सुना था| मैंने जे. एन. यू. के बारे में कभी नहीं सुना था, यद्यपि मैं जे. एन. यू. की परिधि में काम कर रहा था, मुझे नहीं पता था कि मैं अपने जीवन में क्या करूँगा| बाबासाहेब अम्बेडकर से परिचय ने मेरी पूरी जिन्दगी बदल दी| उनकी रचनाएँ पढ़ते वक़्त मैंने सोचना शुरू किया कि हाशिए पर रहने वाले समूहों का इतिहास क्यों नहीं है, दलितों का इतिहास क्यों नहीं है? क्यों हमें कभी भी अम्बेडकर, फुले, पेरियार और बाकि गैर-जातीय दार्शनिकों, विचारकों और नेताओं को क्यों नहीं पढ़ाया जाता? बाबासाहेब अम्बेडकर ने मुझे रजनी कृष की तरह अपने हाशिए पर रहने वाले समाज की कहानी सुनाने वाला कहानीकार बनने का हौसला दिया | रजनी कृष अब हमारे साथ अपनी कहानियाँ सुनाने के लिए नहीं है | सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज में आने के बाद, मुझे इतिहास से नफरत होने लगी | यह नफरत ब्राह्मण-स्वर्ण प्रोफेसरों का संचित दबाव है जिनके कारण मुझे इतिहास से नफरत हुई | उन्होंने मुझे सिखाया कि कैसे गाँधी अस्पृश्यता के खिलाफ लड़े | मैं पूछता हूँ, अगर गाँधी और कांग्रेस लोकतंत्र के लिए लड़े, जाति और अस्पृश्यता के खिलाफ लड़े, तो क्यों मैं 21वीं सदी में अपने गाँव में, तुम्हारे समाज में और इस विश्वविद्यालय में एक अमानव और पशु हूँ?
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जितेन्द्र सुना,सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डिस्क्रिमिनेशन एंड एक्सक्लूशन, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में एम. फिल. के शोधार्थी है|
अंजली, जे. एन. यू. में भाषा, साहित्य और संस्कृति अध्ययन संस्थान के भारतीय भाषा केंद्र में एम. फिल. (हिंदी) की शोधार्थी है|