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बेंचू

November 29th, 2018 by admin

Javed Akhtar (जावेद अख्तर) 

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कमाना खाना बचाना

पीढ़ी दर पीढ़ी से शामिल है बेंचू कुंजड़ा की किस्मत में

उसे फुर्सत ही कहां है कि वह बहस करे आरक्षण पर

चर्चा करें सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर

सवाल उठाए धारा 341 की धर्मनिरपेक्षता पर

वह तो बस मस्त है अपनी अस्त-व्यस्त दुनिया में

दस जने का परिवार

बकरियों की सानी छितराती मुर्गियाँ

भैंस का गोबर

बीमार पंड़वा

लोना खाई दीवारें

टपकता छप्पर

ढनगा हुआ लोटा

अधनंगे बच्चे

टूटी हुई खटिया

कुछ और देखने का मौका ही कहां देते है उसे

कि वह देखेे और सवाल उठाए

धरा 341 की धर्मनिर्पेक्षता पर

हिसाब मांगे वक्फ़ की सम्पत्ती का

बात करे हिस्सेदारी की

उसका जीवन तो बस वही दाल आटा है

एक दिन सय्यद साहब मदरसे का चंदा करने आए

और बेंचू को टोपी पहना गए

अब बेंचू का लड़का भी

हील हील कर कुछ रटने लगा था

लेकिन अब बेंचू की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं

मदरसे के लिए बढ़ चढ़ कर चन्दा देना

बड़े पीर साहब के उर्स पर डेग चढ़ाना

जैसे फर्ज हो गया था उसके लिए

मगर वह खुश था

बेंचू को बस एक ही मलाल था

कि वह नमाज़ के लिए वक्त नहीं निकाल पाता

मगर हाँ क्या मजाल जो एक भी उर्स मुबारक या जलसा

उसके बगैर हो जाए

आखिर जन्नत के लिए सीढ़ी भी तो जरूरी है

अजमेर शरीफ, वारिस पिया

अब्बू मिंयाँ दादा मिंयाँ

घोड्सहिदन बाबा बुजरुग् बाबा

मुनव्वर शाह बाबा पांच पीर बाबा

आस पास की ऐसी कोई मजार या चौखट नहीं

जहाँ बेंचू ने माथा न टेका हो

आखिर जन्नत के लिए सीढ़ी भी तो जरूरी है

उसके पास समय ही कहाँ है

कि वह समझे

डेमोक्रेसी ब्यूरोक्रेसी और मीडिया की सांठ गांठ को

परसाल पुत्तन का लड़का मर गया था

तालाब में डूबकर

अख़बार में आई थी खबर

डी एम एस डीएम भी तो आए थे

उसके लिए तो बस यही है

शासन प्रसासन और मीडिया

मरने मारने की खबर

कौनो ससुर खाय का दै देइ का यार

बेंचू कमाता है खाता है बचाता है

और त्यौहार आय जाता है

बेंचू कमाता है खाता है बचाता है

और फिर त्यौहार आय जाता है

अब अगर त्यौहार से कुछ बचना है

तो बच्चे का खतना है

देखते देखते समय बीत जाता है

बिटिया सायानी हो जाती है

और फिर शादी ब्याह

अब बेंचू को मूतने तक की फुरशत नहीं

वो कैसे बात करे मार्क्सवाद की अम्बेडकरवाद की

वो कैसे समझे मनुवाद को पूंजीवाद को

वो क्या करे

ग्लोब्लाइजेसन का कैपिटलाइजेशन का

वह तो समझता है

यह सब खाए अघाए लोगों के लिए है

लेकिन

यह बात बेंचू से बेहतर

देश का सत्ताधारी वर्ग समझता है

सय्यदवाद ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के दुर्गुणों से युक्त

देश का सत्ताधारी वर्ग समझता है

अगर देश का बेंचू पेटभर खाने लगेगा तो

राजनीति करने लगेगा

और जब राजनीति करने लगेगा तो

हिस्सेदारी मांगेगा

और जब हिस्सेदारी मांगने लगेगा

तो  बिना मेहनत के

लड्डू लावन लापसी नहीं मिलने वाली

जो वह नही चाहता

और वह इसलिए देश की 70% आबादी के सामने रोटी की समस्या बनाए रखना चाहता है

वह केवल चाहता ही नहीं

इसके लिए उपक्रम भी करता है

देश के गोदामों में

हजारों टन अनाज सड़ा दिए जाते हैं

देश का 80% संसाधन

20% लोगों को लुटा दिए जाते हैं

देश का बजट

चंद लोगों द्वारा हजम कर लिया जाता है

लाखों बैकलॉग भर्तियां नहीं भरी जाती

और देश के 80% लोगों को

थमा दिए जाते हैं झुन झुने…

कभी तीन तलाक के

कभी लव जिहाद के

कभी मंदिर मस्जिद के

कभी 370 वाले कश्मीर के

जिसे बजा रही है बेचू की पीढ़ियां

सदियों से

झुन झुन झुन झुन झुन………………..

एक दिन सय्यद साहब का लड़का

दाढ़ी मूँछ आ घोटे सूट बूट में

टाई लगा के आया था

बता रहा था

किसी यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर है

और उसकी वाइफ

सरकारी अस्पताल में स्टाफ नर्स

अरे हां ! वही सैयद साहब

जिसने बेंचू को एक दिन टोपी पहनाया था

देसी मुर्गा लेने आया था

बेंचू ना चाहते हुए भी

बिना मोल भाव किए

अपने दरबे का सबसे हिटलर मुर्गा पकड़ लाया था

पर पता नहीं क्यों

बेंचू को कुछ अंदर ही अंदर काट रहा था

बूढ़ा बेंचू भुनभुना रहा था

मुर्गी पाली हम

और अंडा खांय सैयद साहब

बकरी पाली हम

और कुर्बानी करै सैयद साहब

बाग ताकी हम और फल खांय सैयद साहब

चंदा देई हम

और मदरसा चलाएं सैयद साहब

वोट देई हम और मंत्री बनै सय्यद साहब

ऐसा लग रहा था जैसे

मुर्गा के बहाने बेचू की सदियों की भड़ास फूट पड़ी हो

खटिया पर पड़ा बेंचू जैसे अल्लाह ताला से

शिकायत कर रहा हो

सबसे ऊंचा तो हम ही उठाए थे अलम

लिप्टस पर चढ़कर बारह वफात मेंबांधा था  अपना सबसे ऊंचा परचम

रोजे रखकर भी तो किया था मातम

तो फिर क्यों मालिक

क्यों नहीं बदली हमारी किस्मत

बेंचू को आज भी याद है

सैयद साहब कहते थे

नहीं मिलती मुसलमानों को नौकरी

यह बात अब उसे तीर की तरह चुभ रही थी

सच ही तो कहते हैं सैयद साहब

कहां मिलती है पसमांदा मुसलमानों को नौकरी

कब्बन का लड़का

जिस मदरसे में 700 रुपए महीने में पढ़ाता था

वह मदरसा जब एड हुआ

तो चपरासी तक की जगह भी नहीं मिल पाई थी उसे

सारी सीटें तो सैयद साहब के

चाचा जात खालाजात मामू जात बेटों से ही भर गई थी

बागड़ हाफिज जी तो एक साल पहले ही

कमेटी की साजिश का शिकार हो गए थे

अब बेंचू को कुछ कुछ समझ में आ रहा था

अब वह जाग रहा था

उसकी आंखें लाल हो गई थी

चेहरा तमतमा उठा था

हाथ में मुर्गा थामें सय्यद हिम्मत नहीं जुटा पाया

की कह दे मुर्गा ज़िबह करने को

मुर्गा लेकर वह दबे पांव निकल गया

उसकी चोरी पकड़ी जा चुकी थी……
~~

 

जावेद अख्तर, मास्टर इन पोलिटिकल साइन्स ,भीखमपुर मूरतगंज कौसाम्बी यूपी

 

Stories of a Dalit Dom

April 6th, 2017 by admin

Sumit Turuk 

A small effort to make a rap on the experiences of Dalit identity and importance of Ambedkarism. Apologies for the video quality and the speed of the rap. Hope you like the message. Thanks!!!

(Dedicated to all the fighting Dalit students)

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The Passion of Kanchikacherla Kotesu

March 31st, 2017 by admin

Kalekuri Prasad

Even as the wounds festered syam_kanchikahcerla

Wasn’t it your footprints

That I bore on my heart

Even as death approached, didn’t I seek life with only you?

Beloved, with the rice mixed with curd

That you served me in the morning as my witness

Shall I tell you the cause of my death?

 ‘Beloved’! To call you that

How the language of our hearts’ blood struggled!

Even as our bodies enveloped each other

In the dark

I could only call you ‘Mistress’

My wish was never fulfilled until death

Even as your folks tied me to a tree

And beat me like I was a beast

I imagined I was a prince in a swashbuckler film

If someone had asked, what happened?

I wanted to say that I loved you

But the raccabanda* had charged me with being a thief

Weren’t you the witness!

I know how to burn dead bodies

But you burnt me alive

"Father, forgive them,

for they do not know what they are doing"

I remembered what the padre told me

About our lord’s plea.

In remembrance of the sleepless nights we had spent together

If even a single tear drop had glistened in your eyes

I would have forgiven you and your race

The furnace you had stoked in my heart

The flames from the kerosene your folks poured over me

If asked, which hurt more

I can’t say anything, love

As these flames engulf me

It feels like you’re embracing me. 

~

This untitled poem by Kalekuri Prasad was translated from Telugu by Naren Bedide. The lynching of Kanchikacherla Kotesu for his love of an upper caste woman is illustrated in a series of drawings by Syam Cartoonist. Please see his album titled The Untouchable Love .

The village bench, where the elders hold council.

 

I Have a Bulletproof Dream

December 25th, 2016 by admin

Pabitra Bag

Let me tell you…                          pabitra

I have a bulletproof dream

Made of love, transparent and transcendental

Where at times you feel

 The dance of infinity and you became the one with everything

Where you feel neither disturbed by anyone

Nor have any altered state of consciousness

Respecting the social boundaries

of race, caste-class, gender, region, religion and stupidity

Let me tell you…

I have a bulletproof dream of DID syndrome

Where expectations is not troubling enough to be Desires

Where the expectations and desires have no Instability

Where desire is not a wild Dissatisfied and unstable bird

I have a bulletproof dream of honesty

Made of no hate, no pretension, no dependency and no lie

Where the language of love is a smile of no attachments

Such is the bulletproof dream with the dance of infinity

Let me tell you…

I have a bulletproof dream of colours

A dream of rainbow colours but with happiness as colours

With smiles as its figure and gladness as its gender

Where respect is the language and equality is feelings

Where freedom is the absolute state of inner and transcendental being

Where, in law, constitutionalism is the religion and justice is the highest form of love

~~

Pabitra Bag is a Ph.D student at the Centre for the Study of Law and Governance, JNU

 

अभी तो बाकी है…

December 23rd, 2016 by admin

 

Renu Singh

 

आते हैं कुछ धुंधले नज़र, अपने पैरों के निशान,renu-singh
अभी तो बाकी है खुद से खुद के पहचान ।    

अभी तो मिली है परिंदों को परवाज़,
अभी तो छेड़ा है उम्मीदों ने साज़ ।

अभी तो शुरू हुआ है नव्ज़-ए-ज़ोर का तूफ़ान,
अभी तो मिली है मंज़र- ए- खाक़ को ज़ुबान ।

माना आज़ादी हक है तुम्हारा,
पर आज़ाद थे कब तुम?

था आबाद कहाँ आशियाँ तुम्हारा?
कहाँ सुना कभी तुमको किसीने?

जब सी दिया हलक तुम्हारा,
जब रोक दिए कदम तुम्हारे ।

चल चलकर तराश ले खुदको तू,
बुलंदियों का ये सफ़र नहीं आसाँ ।

तबियत से तलाश ले खुद की हुस्न- ए- पेशानी की बसर,
कि कोई रोक न पाए तेरी धड़कती रवानियों का सफ़र ।

समेट कर रख ले अपनी रूह में इस कदर,
की न सुन पाए तू, खुद से खुद की बेमानियों कि ख़बर ।

के, हर जद्द-ओ-जेहद हो मुकम्मल तेरी,
हर रज़ा खुद, तुझ-पर मेहेरबान ।

कर खुद को रिहा इन ज़माने के बेतुके, ग़ैर- मुतालिक़ फरमानों से,
है ललकारे तेरे होने पर, हाथ में लिए जो कमान ।

हर अक्स में झिलमिलाए बस बुलंदियों का चमकता शिखर,
कर खुद को बेख़ौफ़, ज़माने की इन जंजीरों से, बे- खबर ।

ठहर न जाये किसी की गुज़ारिश पर तू यूँही,
जायज़ है, तेरी नाकामियों की गुज़ारिश तो वो किया ही करते हैं ।

बिना किसी तक़ल्लुफ के,जिन्हें है तकलीफ़ तेरे होने से,
तेरी बेख़ौफ़ उड़ानों से, तेरी मोहारत के किस्से- कहानियों से ।

जो महरूम हैं तेरे हुनर की पहचान से,
या फिर तेरे गहरे पड़े क़दमों के निशाँ से ।

तू कर उन्हें आगाह,
तू कर उन्हें आगाह….

कर रुबरुह… तमाम गुलामी के खिदमतगारों को,
जो न जाने कबसे हैं बने फिरते, खालिक-ए-खाक़ तेरे ।

तो बनाये चल काफिले….
बढ़ाये चल काफिले…..
आबाद रहे ये काफिलें….
रौशन रहे ये काफिले…….

आते हैं कुछ धुंधले नज़र अपने पैरों के निशान,
अभी तो बाकी है खुद से खुद के पहचान ।

अभी तो मिली है परिंदे को परवाज़,
अभी तो छेड़ा है उम्मीदों ने साज़ ।

~~

नव्ज़-ए-ज़ोर: sturggle, toil, मंज़र- ए- खाक़: sight of destruction, हुस्न-ए-पेशानी: beautiful-forehead,खालिक-ए-खाक़: creator of demise.

 ~~~

Renu Singh, hails from Lucknow, UP and is currently pursuing Ph.D at the Dept. of Political Science, Jamia Millia Islamia. Raised in an Ambedkarite family, she is well acquainted with the stories of Babasaheb and Gautam Buddha, the Dalit movement, BAMCEF and BSP, the atrocities against dalit community and takes keen interest in issues of social justice, dalit feminism and exclusion of marginalized communities

 

Salute to you Babasaheb…

December 11th, 2016 by admin

Pabitra Bag

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Salute to you Babasaheb…            

That day you died was not the day of death                               

But the moment of victory over death

That every Ambedkarite wishes to live once again

That moment was not the moment of cessation but the beginning

You took birth in many forms, in multiple ways in the hearts of people

As songs, music, happiness, harmony, emotions and anger

Your death was not the death of a body

You did not live the life of one but you choose to live the aspiring lives of mankind

You are the total culmination of transcendentality of shramic tradition

You were the ocean, the ocean of it all

Salute to you Babasaheb…

That day you died as body but you remain as seeds sprouting to become trees

Things of the past became the treasure of the present

You appeared in many symbols, became the ray of hope

You replaced a total of 33 crore gods and goddesses in every Ambedkarite house

At times, the Ambedkarites imagine the wall to be alive with all five senses of you

Equality, liberty, fraternity, Wisdom and Dhamma

The wall embraced new calendars with every day of the month remembering leaders of the marginalized

And the old calendars with the names and images of Brahminical Gods and Goddesses were replaced

Salute to you Babasaheb…

That day you died was not the day of death

But the moment of victory over death

That every Ambedkarite wishes to live once again

If you were not there, the lives we are living now would not have been the same

You died but you live in people’s hearts and in their aspirations

Salute to you Babasaheb…

~~

Pabitra Bag is a Ph.D student at the Centre for the Study of Law and Governance, JNU
 

Who? Me? A Casteist?

September 26th, 2016 by admin

Vivek Singh

Who? Me? A casteist?                          vivek-singh1

Oh, you must be mistaken,         
Such illogical things have been shaken. 

These are things of past,
Generations ago, it is said,
Human dignity was torn and shred.

But not today, sir, no.
How could untouchability have survived rationality?
If you think I'm wrong, check the legality.

Untouchability: BANNED
Manual Scavenging: BANNED
Discrimination: BANNED

See, sir, it's all gone now,
BANNED, by law, by the government,
Who says now it exists? Now there’s development.

What? A study shows it exists?
Well, sir you know how it is,
Those foolish villagers do all sorts of rubbish.

What? In cities too?
Old habits die hard, you know,
Some people just don't grow.

Oh, but they are very few, sir.
Modernity has dawned, development is here.
Awareness has grown, now even the few will disappear.

What? Me? A casteist? Why, sir?
For opposing reservation in colleges and universities?
That is because I believe in quality and equality.

What? Then the maid should get the same food?
Oh she does- everything left is for her.
Same plate? Same table? On a chair?

With all due respect, are you a fool, sir?
Dare I break traditions, sir!
I'm virtuous and religious, no wrong ever.

So, no to inter-caste marriages too?
That bhangi-chamar my wife? How can I break traditions?
Why curse me with unequals for life, give me equals for celebration.

What about equality then?
What? Human Dignity?
What about 'it's gone now'?

Oh, dear sir, be patient.
Don't be such a hard-core idealist.
You know, some things always exist.

~~

Vivek Singh is currently doing his MA (Political Science) from JNU

 

नया राष्ट्र गीत

July 23rd, 2016 by admin

Vruttant Manwatkar

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चमचा काल से
प्रबुद्ध युग तक,
धम्मचक्र को आगे बढ़ाएं.
हिन्दू राज पीड़ित भारत को
ऊँच-नींच से मुक्त कराए.

मानव-मानव समान सारे
सब ने मिलके पुकारा हैं.

सोच नयी, आचार नया
यह नव बुद्धि का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा हैं.


सत्य खोजती तर्ककला का
नालंदा का, तक्षशिला का.
विश्वशांति परचम फहराए
चक्रवर्ती की सिंह सीला का.

बलिराजा की, शिवराजा की
सत्ता से राज सँवारा हैं.

इतिहास नया, विश्वास नया
यह नव स्वराज्य का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा है.

क्रांतिसुर्य की नव ऊर्जा का
शेख फातिमा, सावित्री का.
अहंकारी वीरों से लड़ती
लगामधारी झलकारी का.

मर्यादा पुरुषोत्तोम का नहीं
मुक्ता ने यहललकारा है.

बोधनया, प्रतिरोध नया
यह नव समाज का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा है.


उल्गुलानो उलगुलान!
स्वतंत्रता के युद्धनाद का.
पीड़ित जन को प्रेरित करते
बिरसा के मानवतावाद का.

बंधुता की किरणों से
जग में जगमगता तारा है.

तरंगें नयी, प्रकाश नया
यह नव प्रभात का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा है।


नानक, गुणावली, ख्वाजा का
लालोन, तुका, खुसरो, कबीरा का.
मन मूल्यों की राह दिखाते
अभंग-दोहे कि सतवाणी का.

बेगुमपुरा का ध्येय लिए
मानव दर्शन का पिटारा है.

विमर्श नया, आदर्श नया
यह नव मुक्ति का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा हैं.


शिक्षित बनो और संगठीत हो
संघर्षों से जग को जीत लो.
बोधिवृक्ष के ज्ञानमूल से
नव निर्माण की नीव को रख लो.

न्याय नीती से विधि शासन का
बाबासाहेब का इशारा है.

सम्मान नया, अधिकार नया
यह नव विधान का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
नव जन राष्ट्र हमारा है.

 

बहुजन हिताय
बहुजन सुखाय
बुद्ध धम्म सम्यक वाणी का.
स्वयं सदा सेवा में तत्पर
समताकारक मैत्रीभाव का.

अत्त दीप भव, ज्ञान तेज से
बहती मंगल धारा है.

मुट्ठी बाँधो, 'जय भीम' करो
यह नव क्रांती का नारा है.

प्रबुद्ध भारत
प्रबुद्ध भारत
बहुजन राष्ट्र हमारा है.
बहुजन राष्ट्र हमारा है.

 

Vruttant Manwatkar is from Nagpur, and is pursuing  PhD at the School of International Studies, JNU.

Ash only knows the heat of burning

March 2nd, 2016 by admin

Mudnakudu Chinnaswamy

A bonded labourer was my grandfather

Leaving the cattle at the tank bund

He gathered some water in cupped hands and drank

The news spread through the village

That the tank was defiled

Caste men threw him to the haystacks in flames

And burnt him alive

 

Unable to bear the burden of the burnt ashes

Mother earth sobbed in lightning and thunder

Then the Lord of the sky poured down as rain

And soothed her

Then was born my father

As cinder was covered in ashes

 

A bonded labourer was my father

Like his father, craving for a son like him

He prayed standing on his head and stretched his

Hands to the courtyard of the temple

The news spread through the village

That the God was defiled

Caste men lit fire to the hut

The skeleton of my sleeping father inside

Was burnt alive

 

Unable to bear the burden of the burnt ashes

Mother earth wept and cried, sobbing in earthquakes

The sea rushed in a deluge, soothing her and

Then was I born, a volcano

 

Now they can’t burn me,

They burn themselves trying to grab me

Because I have turned into

The letter that burns the ignorance,

A witness for the deathless truth

~~~

Translated from the Kannada original by the poet

Mook Nayak, our Mukiya Nayak

January 8th, 2016 by admin

Kadhiravan (Hari) 

Just like your god,

You morph into multiple avatars,

Just as you like,

A Hindu atheist, a Hindu communist,

A Hindu Left, and a Hindu Right,

Just like your god,

Formless, you take shape,

Caste-less and yet full of caste,

Benevolent, and yet full of hate,

Just as much mysticism, just as you like,

Just like your god,

With limitless power, to discipline us,

To make us your dumb worshippers,

But, not long shall we remain, dumbed down,

We have our Mook Nayak, our Mukiya Nayak,

Who teaches us to break idols!

~

But when I do pray at your temples,

When I tread with the weight of your flags,

Flags of all your colours, red, reddish and more,

When I learn to by-heart your theories,

Your lies on all our lives,

From where I consume your abuse,

And learn the art of self-abuse,

I remain a Pariah,

I remain a category among categories,

Of the many creations, you have created,

Not a Hindu, not a Marxist, not lettered, not a human,

I remain a Pariah, praying at your altars,

Waving your flags, reciting your rhymes,

Remaining what I am, so you would remain all the same,

But, not long shall we remain, dumbed down,

We have our Mook Nayak, our Mukiya Nayak,

Who teaches us to break idols!

 

 

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