Sweta Yadav
आज़ाद भारत जी हाँ आज़ाद भारत! सिर्फ आज़ाद ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश | लोकतंत्र का जश्न मानते हुए भारत के नागरिकों को लगभग 68 वर्ष गुजर चुके हैं लेकिन आज भी कुछ सवाल जस का तस हमारे सामने मुह बाए खड़े है | समानता का अधिकार देता हमारा संविधान यह सुनिश्चित करता है की इस देश में रहने वाला प्रत्येक नागरिक एक समान है सभी को सम्मानित जीवन जीने का अधिकार है और किसी भी कारण से यह अधिकार यहाँ के नागरिकों से कोई भी छीन नहीं सकता और यदि कोई भी ऐसा करने का प्रयास करता है तो वह दंड का अधिकारी माना जाएगा तथा उसके लिए संविधान सजा का प्रावधान करता है| भारतीय संविधान की सबसे बड़ी खासियत है, यह एक शब्द जिसे हम “समानता” कहते हैं| यदि इस शब्द को आइन से अलग कर दिया जाए तो हमारा संविधान प्राण विहीन हो जाता है| कुछ शब्द सुनने में जितने अच्छे लगते है उतना ही मुश्किल होता है उन्हें सहजता से जीवन में उतारना कुछ इसी तरह का शब्द है समानता | भारत विभिन्नताओं का देश है यहाँ अलग – अलग जाति, धर्म, बोली और संस्कृति के लोग रहते हैं जिन्हें किसी एक लीक में बांधना मुश्किल है | इतिहास गवाह है की जब-जब इस तरह की कोशिश हुई है तब-तब देश में अशांति फैली है| कुछ ऐसा ही हुआ अयोध्या में | अयोध्या एक लम्बे समय से विवाद का विषय रहा है जिसमें मंदिर -मस्जिद का मुद्दा विवाद का विषय है| भारत में मुस्लिम समुदाय अलप्संख्यक समुदाय है| जिसे कुछ तथाकथित हिंदुत्ववादी लोग इस देश का नहीं मानते हैं और बार-बार उन्हें नुकसान पहुचाने की कोशिश करते हैं| दरअसल यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था के वह अभिजात्य लोग हैं जो किसी भी सूरत में अपने वर्चस्व को खोना नहीं चाहते | अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए यह किसी भी प्रकार का हथकंडा अपनाने से नहीं चूकते| अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए यह धर्म, राजनीति, समाज, भाषा सभी का इस्तेमाल करते हैं |
6 दिसम्बर 1992 को विवादित स्थल पर कार सेवकों के नाम से बड़ी संख्या में भीड़ इकट्ठी होती है और जय श्री राम और हर-हर महादेव के नारे के साथ देखते ही देखते बाबरी मस्जिद को मलबे में तब्दील कर देती है| आखिर कौन लोग थे यह, कहाँ से आई थी इतनी बड़ी संख्या में भीड़ जो धर्म के नाम पर कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो गई| और सबसे बड़ी बात इस विध्वंस के लिए 6 दिसम्बर का ही दिन क्यों चुना गया? इन सवालों के जवाब जानने के लिए हमें भारत की सामजिक संरचना को समझना होगा| भारत में जाति एक बहुत बड़ा मुद्दा है जिसे किसी भी सूरत में नकारा नहीं जा सकता ब्राह्मणवादी शक्तियों को यह किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं की निचली समझी जाने वाली जातियों को बराबरी का दर्जा दिया जाए | सवर्ण जातियों के लिए शुद्र का मतलब इन्सान नहीं बल्कि जानवरों से भी बदतर स्थिति का एक ऐसा तबका जो उनके मुलाजिम बन कर रहें | ब्राहमणी सत्ता के लिए दूसरा सबसे बड़ा खतरा मुसलमान हैं | ब्राह्मणवादी यह कभी नहीं चाहते की इस देश में अल्पसंख्यक और ओबीसी, एससी, एसटी एक हो क्योंकि वह जानते हैं की अगर ये एक साथ मिल गए तो यह बहुसंख्यक की स्थिति में हो जायेंगे, जो की यह अभी भी हैं | इनके एक हो जाने की स्थिति में ब्राह्मणवादी वर्चस्व का सत्ता और समाज में सर्वोपरी बने रहना मुश्किल होगा | जिसके लिए इन्होने विवादित ढाँचे को गिराने का विकल्प चुना | चूँकि 6 दिसंबर डॉ. भीमराव आंबेडकर का परानिर्वाण दिवस है इसलिए इन तत्वों ने इस दिन का चुनाव किया और धर्म के नाम पर हिंदुत्व के नाम पर ओबीसी और दलित लोगों को बाबरी मस्जिद के विध्वंस में शामिल किया | ऐसा कर के इन्होने एक पंथ दो काज किया पहला तो यह की मुस्लिम समाज और ओबीसी समाज में एक दूरी पैदा की और दूसरा यह की इसके लिए 6 दिसम्बर का दिन चुना जिसे दलित बाबा साहब के परानिर्वाण दिवस के रूप में मानते थे उसे बदल कर शौर्य दिवस का रूप देने की कोशिश की | इस विध्वंस के पीछे देश की एक बड़ी राजनितिक पार्टी और उसके सहयोगी दलों का खुला हाथ रहा इतना ही नहीं जिस समय यह शर्मनाक घटना घटी उस वक्त उत्तर प्रदेश में यही पार्टी सत्ता में रही | और आज केंद्र में यही पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है |
बाबरी मस्जिद के विध्वंस को लगभग 23 वर्ष गुजर चुके हैं| लेकिन आज भी देश में सामजिक और धार्मिक स्तर पर भेद करने की कोशिश लगातार जारी है | कितना अजीब है न कि धर्मनिरपेक्ष देश में सबसे ज्यादा दंगे धर्म के नाम पर ही हुए हैं| 2002 में हुए गुजरात दंगे हो या मुजफ्फरनगर या फिर त्रिलोकपुरी दंगे इसका साफ़ उदाहरण हैं | हमें यह समझना होगा की विविधताओं वाले देश को एक राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र बनाने की लगातार कोशिश की जा रही है जिसके परिणाम निसंदेह भयानक होंगे| आज देश मंदिर मस्जिद के मुद्दे से आगे बढ़ कर और भी भयानक स्थिति में पहुँच चुका है| जहाँ यह बात भी अब कुछ लोग निर्धारित करने की कोशिश में लगे हैं की कौन क्या खायगा क्या नहीं | जिसका ताजा उदाहरण है दादरी काण्ड जहाँ एक व्यक्ति को भीड़ सिर्फ इसलिए पीट पीट कर मार डालती है की उसके घर गाय का मांस मिलने का शक था | आज देश की जो आतंरिक हालत है उसकी चर्चा अब बाहर के देशों में भी होने लगी है | दिखने में यह बातें भले ही छोटी लग रही हों लेकिन यह छोटी हैं नहीं इनका सीधा सम्बन्ध लोगों में डर फैला कर सत्ता अपने हाथ में बनाये रखने से है| मुस्लिम समुदाय तो सिर्फ बहाना है असली मकसद तो दलित, ओबीसी वोट बैंक का ध्रुवीकरण करना और उन्हें हिंदुत्व में शामिल करने का है | समाज में दमन, अन्याय, असमानता, जातिभेद को कायम रखने की यह ब्राहमणवादी चाल है जिससे की सत्ता पर सदा यही कायम रहे| अपने आप को हिंदुत्व का पुरोधा मानने वालों ने धर्म के नाम पर एक तरह का आतंक मचा रखा है | ताजा हुई घटनाओं पर नज़र डाले तो स्थिति की भयावहता का पता चलता है | पहले वर्ग फिर जाति और अब धर्म समय-समय पर वर्चस्ववादी ताकतें अलग-अलग तरीके अपना कर समाज को विखंडित करने का प्रयास लगातार कर रही हैं| पिछले दिनों एक परिवार को सिनेमाहाल से इसलिए उठ कर जाना पड़ा कि फिल्म में राष्ट्रगान बजने पर वह खड़े क्यों नहीं हुए उक्त घटना इस बात का अंदाजा लगाने के लिए काफी हैं की देश किस तरह के आपातकाल से गुजर रहा है| राष्ट्रगान का सम्मान होना चाहिए इससे मेरा बिलकुल इनकार नहीं है लेकिन उसके लिए खड़े होना जरूरी है वरना आपको तिरस्कृत कर दिया जाएगा इससे मैं इतेफाक नहीं रखती|
भारत जैसे विभिन्नता वाले देश में आगे बढ़ने से पहले हमें समझना होगा की हम कैसा समाज चाहते है क्योंकि देश की तरक्की, सुख, समृधि इस बात पर निर्भर करती है की हम कैसे समाज में रहते हैं? समाज में रहने वाले व्यक्तियों के एक दूसरे से सम्बन्ध कैसे है? किसी भी देश की प्रगति उसकी सामजिक स्थिति पर काफी हद तक निर्भर करती है| हम आर्थिक संपन्नता की तरफ तभी बढ़ सकते हैं जब की हम सामजिक रूप से सम्पन्न हों| जिस समाज में असहमति के लिए कोई स्थान न हो वह समाज अंततः पिछड़ा ही रह जाता है| जिसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है की हम एक भयमुक्त समाज का निर्माण कर सकें जहाँ हर धर्म, जाति, संस्कृति के लोग एक साथ रह सकें | समाज में दमन, अन्याय, असमानता, जातिभेद को कायम रखने की यह ब्राहमणवादी चाल जिस गति से अपने पैर फैला रही है तथा जिस प्रकार देश को कट्टर हिन्दू राष्ट्र बनाने की कोशिश की जा रही है उससे यह साफ़ पता चलता है कि ब्राह्मणवादी ताकतों को अब यह अहसास होने लगा है की अगर उन्हें सत्ता को हमेशा के लिए अपने पास रखना है तो इस तरह की कुत्सित चालें चलनी ही पड़ेंगी जिससे की वो शीर्ष पर कायम रह सकें|
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भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता की मिशाल है| हम सभी यह मुहावरा लम्बे समय से सुनते आ रहे हैं| यह अपने आप में एक शब्द जाल है जिसे सत्तासीन ताकतें समय समय पर अपने हित में इस्तेमाल करती रहती हैं | देश में जहाँ विकास के नाम पर एक तरफ गगनचुम्बी इमारतें, शापिंग माल बड़े-बड़े सिनेमाहाल हैं वही दूसरी तरफ देश की आधी आबादी बेरोजगारी, भुखमरी से ग्रस्त है| अवसर और संसाधनों का समान वितरण न होने के साथ साथ शिक्षा के स्तर पर बढती हुई खाई देश के आम जनमानस में एक अजीब तरह का आक्रोश भर रही है| आज हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ प्रजातंत्र में अपने तरह का एक अलग राजतंत्र दिखलाई पड़ रहा है| जहाँ सत्ता के विरोध में उठने वाले स्वर या तो दबा दिए जा रहे है या फिर स्वर उठाने वाले को कभी धर्म तो कभी जाति इत्यादी के नाम पर ख़त्म कर दिया जा रहा है| सदियों से हाशिये पर जी रहे सामाज के लोग आज भी बदहाली का जीवन व्यतीत करने को विवश हैं| ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम ऐसे विचारों का संकलन करें जो लोकतंत्र की गरिमा को समझते हुए देश में हाशिये पर जीवन जी रहे समाज के लोगों की आवाज़ बन सके| अकबर इलाहाबादी का एक शेर है – खीचों ना कमानों को ना तलवार निकालो, जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो| अनकही बातें जब शब्द का रूप लेते हैं वह विचार कहलाते हैं| कहते हैं सबसे ज्यादा धार और मार शब्दों की ही होती है| जनपरख इन्हीं सामाजिक सोपानों के प्रति प्रतिबद्ध है|
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श्वेतायादव, सम्पादक – जनपरख, आजमगढ़, उत्तरप्रदेश, email- yasweta@gmail.com