अनिता भारती (Anita Bharti)
ओम प्रकाश वाल्मीकि जी को याद करते हुए
हमने अपनी समूची घृणा को/ पारदर्शी पत्तों में लपेटकर/ ठूँठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर टाँग दिया है/ताकि आने वाले समय में/ ताज़े लहू से महकती सड़कों पर/ नंगे पाँव दौड़ते सख़्त चेहरों वाले साँवले बच्चे/ देख सकें कर सकें प्यार/दुश्मनों के बच्चों में/ अतीत की गहनतम पीड़ा को भूलकर [ओमप्रकाश वाल्मीकि]
गैर दलितों द्वारा दी गई समूची हिंसा, घृणा, अपमान, प्रताड़ना के खिलाफ लेखनी से पुरजोर लड़ते हुए, दलित समाज के लिए समता समानता और स्वतंत्रता का सपना अपनी सपनीली आँखों में सजोए हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी 17 दिसम्बर को इस दुनिया से विदा हो गए । हम सभी उनकी बीमारी के बारे में जानते थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी पिछले एक साल से ‘बड़ी आंत के कैंसर की भयंकर बीमारी से जूझ रहे थे। पिछले साल 10 अगस्त 2013 में उनकी बड़ी आंत का सफल आपरेशन हुआ था। आपरेशन सफल होने के बाबजूद वे इस भयंकर बीमारी से उभर नहीं पाएं। वह अपनी इस जानलेवा बीमारी के चलते भी यहां-वहां विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों में लगातार शिरकत करते रहे और लगातार लिखते भी रहे। अपनी बीमारी की गंभीरता को जानते हुए और उससे लड़ते हुए उन्होने दो मासिक पत्रिकाओं “दलित दस्तक” और “कदम” का अतिथि संपादन भी किया।
जब उनकी हालत बहुत ज्यादा चिंताजनक हो गई तब उन्हे देहरादून के एक प्राईवेट अस्पताल मैक्स में दाखिल कराया गया। पूरे सप्ताह भर अस्पताल के आईसीयू वार्ड में दाखिल रहकर, बहुत बहादुरी से अपनी बीमारी से लडते हुए आखिकार जिंदगी और मौत में लगी जंग में आखिरकार जीत मौत की हुई और वह हमारे प्रतिबद्ध लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि जी को अपने साथ ले ही गई। उनका हिन्दी साहित्य और दलित साहित्य में उनके अवदान और उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी बीमारी की खबर सुनने के बाद रोज उनसे मिलने वालों, फोन करने वालों और उनके स्वास्थ्य में शीघ्र सुधार होने की कामना करने वालों की संख्या हजारों में थी।
ओमप्रकाश वाल्मीकि हिन्दी दलित साहित्य के सबसे मजबूत आधार स्तम्भों मे से एक थे। उनका जन्म 30 जून 1950 में उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरपुर जिले के बरला गांव में हुआ था। वे बचपन से ही पढने में तेज और स्वभाव से जुझारु थे। वह सबके सामने किसी भी बडी से बडी से बात को इतनी निडरता, स्पष्टता और पूरी विद्वता से रखते थे कि सामने वाला भी उनका लोहा मान जाता था। ओमप्रकाश वाल्मीकि जिस समाज और देश में पैदा हुए वहां व्यक्ति अपने साथ अपनी जातीयता और गुलामी की गज़ालत को लेकर पैदा होता है। यह जातीयता और गुलामी दलित समाज की अपनी ओढी हुई नही है बल्कि यह गुलामी ,अपमान और जिल्लत भरी जिंदगी यहां के सवर्ण व ब्राह्मणवादी समाज द्वारा उसपर जबर्दस्ती थोपी गई है। इसी गुलामी के खिलाफ 1981 में लिखी गई उनकी कविता ठाकुर का कुआँ उल्लेखनीय है जिसमें वह कहते है-
चूल्हा मिट्टी का/ मिट्टी तालाब की/ तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की/ रोटी बाजरे की/ बाजरा खेत का/ खेत ठाकुर का।
बैल ठाकुर का/ हल ठाकुर का/ हल की मूठ पर हथेली अपनी/फ़सल ठाकुर की।
कुआँ ठाकुर का/ पानी ठाकुर का/ खेत-खलिहान ठाकुर के/ गली-मुहल्ले ठाकुर के/ फिर अपना क्या? गाँव?/ शहर?/ देश?
ओमप्रकाश वाल्मीकि हिन्दी के उन शीर्ष लेखकों में से एक रहे है जिन्होने अपने आक्रामक तेवर से साहित्य में अपनी सम्मानित जगह बनाई है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होने कविता, कहानी, आ्त्मकथा से लेकर आलोचनात्मक लेखन भी किया है। अपनी आत्मकथा “जूठन” से उन्हें विशेष ख्याति मिली है। जूठन में उन्होने अपने और अपने समाज की दुख-पीडा-उत्पीडन-अत्याचार-अपमान का जिस सजीवता और सवेंदना से वर्णन किया वह अप्रतिम है। जूठन की भूमिका में उन्होने लिखा है-“दलित जीवन की पीडाएँ असहनीय और अनुभव दग्ध है। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नही पा सके। एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने सांसे ली है, जो बहुत क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी।” उनका मानना था “जो सच है उसे सबके सामने रख देने में संकोच क्यों? जो यह कहते है – हमारे यहाँ ऐसा नही होता यानी अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने का भाव- उनसे मेरा निवेदन है, इस पीडा के दंश को को वही जानता है जिसे सहना पड़ा। जूठन में छाई पीड़ा, दुख.निराशा, संघर्ष की झलक इस एक कविता युग चेतना से देखा जा सकता है।
मैंने दुख झेले/ सहे कष्ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने/ फिर भी देख नहीं पाए तुम
मेरे उत्पीड़न को/ इसलिए युग समूचा/ लगता है पाखंडी मुझको।
इतिहास यहाँ नकली है/ मर्यादाएँ सब झूठी/ हत्यारों की रक्तरंजित उँगलियों पर
जैसे चमक रही/ सोने की नग जड़ी अँगूठियाँ।
कितने सवाल खड़े हैं/ कितनों के दोगे तुम उत्तर/ मैं शोषित, पीड़ित हूँ
अंत नहीं मेरी पीड़ा का/ जब तक तुम बैठे हो/ काले नाग बने फन फैलाए/ मेरी संपत्ति पर।
मैं खटता खेतों में/ फिर भी भूखा हूँ/ निर्माता मैं महलों का/ फिर भी निष्कासित हूँ/ प्रताडित हूँ।
इठलाते हो बलशाली बनकर/ तुम मेरी शक्ति पर/ फिर भी मैं दीन-हीन जर्जर हूँ
इसलिए युग समूचा/ लगता है पाखंडी मुझको।
अपने इस शम्बूकी पीड़ा को उन्होने साहित्य से जोड़ते हुए हाल में ही प्रकाशित पुस्तक मुख्यधारा और दलित साहित्य में व्यक्त करते हुए भी कहा है कि- “हिन्दी साहित्य ने एक सीमित दायरे को ही अपनी दुनिया मान ली है, लेकिन इससे दुनिया का अस्तित्व कम नहीं हो गया है। हजारों पस्त,दीन-हीन दलित धरती की शक्ल बदलकर अपनी आंतरिक ऊर्जा और ताप का सबूत देते है। उनके चेहरे भले ही उदास दिखें पर उनके संकल्प दृढ़ हैं, इरादे बस्तूर । वे विवश हैं लेकिन इन हालात में बदलाव चाहते है,यह उनकी बारीक धड़कनों को सुनकर ही समझा जा सकता है।”
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी अपने पूरे जीवन में तमाम तरह की अपमान प्रताड़ना भेदभाव सहते हुए अपनी मेहनत-लगन और प्रतिबद्धता के साथ हिन्दी साहित्य की जो सीढिया चढे, वह दलित समाज के लिए बहुत गर्व के साथ साथ प्रेरणादायक बात भी है। हिन्दी साहित्य में नये कीर्तिमान छूती हुई उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ का कई देशी-विदेशी भाषाओं यथा पंजाबी, मलयालम, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी, जर्मनी, स्वीडिश में अनुवाद हो चुका है। साहित्य में रुचि रखने वाले पाठकगण या फिर साहित्य-सृजन से जुड़े लोगों में ऐसे लोग बहुत कम ही होगे जिन्होने उनकी आत्मकथा जूठन ना पढी हो। यही इस आत्मकथा की कालजयीता है। जूठन में वर्णित पात्र, सारी घटनाएं, सारी स्थितियां-परिस्थितियां पूरी शिद्दद से उकरेने के कारण ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा आज वैश्विक धरोहर बन चुकी है। अपनी बस्ती और बस्ती के लोगों का वर्णन करते हुए कहते है कि “अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इनसानी दर्ज़ा नहीं था। वे सिर्फ़ ज़रूरत की वस्तु थे। काम पूरा होते ही उपयोग खत्म। इस्तेमाल करो, दूर फेंको।‘ ‘जब मैं इन सब बातों के बारे में सोचता हूं तो मन के भीतर कांटे उगने लगते हैं, कैसा जीवन था? दिन-रात मर-खपकर भी हमारे पसीने की क़ीमत मात्र जूठन, फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं।”
जाति कैसे प्यार को भी खा जाती है, इसके बारे वह बताते है कि जब एक ब्राह्मण परिवार की एक लड़की उनको पसंद करती थी पर वह जानते थे कि जब लड़की को उसकी जाति पता चलेगी तो तो वह प्यार करना छोड़ देगी। उन्होने लड़की को जाति के इस कड़वे सच को छुपाने के जगह बताना उचित समझा। इस घटना का वर्णन करते हुए वह कहते है- “वह चुप हो गई थी, उसकी चंचलता भी गायब थी। कुछ देर हम चुप रहे। … वह रोने लगी। मेरा एस.सी. होना जैसे कोई अपराध था। वह काफ़ी देर सुबकती रही। हमारे बीच अचानक फासला बढ़ गया था। हजारों साल की नफ़रत हमारे दिलों में भर गई थी। एक झूठ को हमने संस्कृति मान लिया था।”
जूठन के अलावा उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में ‘सदियों का संताप’, ‘बस! बहुत हो चुका अब और नही!’( कविता संग्रह) तथा ‘सलाम’, ‘घुसपैठिए’ (कहानी संग्रह) दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, मुख्यधारा और दलित साहित्य (आलोचना), सफाई देवता (समाजशास्त्रीय अध्ययन) आदि है। इसके अलावा उन्होंने कांचा इलैया की किताब “वाय आय एम नॉट अ हिन्दू” का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद भी किया। वाल्मीकि जी ने लगभग 60 नाटकों में अभिनय और निर्देशन भी किया था।
बाल्मीकि जी अब तक कई सम्मानों से नवाजे जा चुके है जिनमें प्रमुख रुप से 1993 में डॉ.अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 1995 में परिवेश सम्मान, 2001 में कथाक्रम सम्मान, 2004 में न्यू इंडिया पुरस्कार, 2008 में साहित्य भूषण सम्मान। इसके अलावा उन्होने 2007 में 8वे विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लिया और सम्मानित हुए।
ऐसी महान विभूति का हिन्दी साहित्य और दलित साहित्य के शीर्ष साहित्यकार पर आकर और साहित्य के नये प्रतिमान गढकर अचानक असमय चले जाना बेहद दुखद घटना है। वे मात्र अभी 63 साल के ही थे। वो अभी दो-तीन साल पहले ही देहरादून की आर्डनेंस फैक्ट्ररी से रिटायर हुए थे। उनका बचपन बहुत कष्ट-गरीब-अपमान में बीता। यही कष्ट-गरीबी और जातीय अपमान-पीडा और उत्पीडन उनके लेखन की प्रेरणा बने। उनकी कहानियों से लेकर आत्मकथा तक में ऐसे अऩेक मार्मिक चित्र और प्रसंगों का एक बहुत बड़ा कोलाज है। वह विचारों से अम्बेडकरवादी थे। बाल्मीकि जी हमेशा मानते थे कि दलित साहित्य में दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है। क्योंकि उनका मानना था कि दलित ही दलित की पीडा़ और मर्म को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है।
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि तर्क देते हुए कहते है- ‘दलित समाज का संबंध उत्पादन से जुड़ा हुआ है। प्रकृति, श्रम और उत्पादन इन तीनों का परस्पर गहरा संबंध है। जिसकी सरंचना में दलित गुंथा हुआ है।कृषि कार्यों, कारखानों, कपड़ा मिलें, चमड़ा उत्पादन, सफाई कार्य आदि ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं जहां दलित समाज ने विशेष योग्यता हासिल की है, जबकि गैर दलित इन सब कार्यों से विरत रहने के बावजूद इनकी महत्ता को भी नकारते है, इसलिए जब गैर दलित साहित्य में जब भी कृषि, मिल, मजदूरी, श्रम, किसान, पशुपालन आदि का चित्रण होता है, वहां कल्पना आधारित तथ्य होते है, जिनका संबंध यथार्थ जीवन से नहीं होता।’
ओमप्रकाश वाल्मीकि की ईंट भट्टा मजदूरों के जीवन, उनके शोषण अपमान को लेकर लिखी गई कहानी ‘खानाबदोश’ ईंट भट्टा मजदूरों के रात-दिन साथ रहने व आपसी दुख सुख बांटने से लेकर जीने मरने के सवालों के साथ जाति के प्रश्न पर मजदूरों के मन में बैठी जातीय भावना को बखूबी उभारा है। कहानी की मुख्य पात्र दलित स्त्री मानों जब ईंट भट्टा ठेकेदार की रखैल बनने से इंकार कर देती है तब ठेकेदार अन्य मजदूर जसदेव की मानों की जगह जाने की एवज में ठेकेदार उसकी खूब पिटाई कर देता है। जसदेव की पिटाई व अपनी अस्मिता बचाने के चिंतित जब जसदेव को रोटी देने जाती है तब जसदेव का रोटी खाने के लिए मना कर देना मानों के मन को और विचलित कर देता है। इस तरह की संवेदना दलित साहित्य में ही देखी जा सकती है। मानों और उसके पति सुखिया के संवाद भारतीय मजदूर मानस में बैठी जातीयता की पर दर परत खोल देते है।
“मानो रोटियाँ लेकर बाहर जाने लगी तो सुकिया ने टोका, ”कहाँ जा रही है?” ‘जसदेव भूखा प्यासा पड़ा है। उसे से’ देणे जा रही हूँ ।” मानो ने सहज भाव से कहा।
बामन तेरे हाथ की रो खावेगा।… अक्त मारी गई तेरी, ”सुकिया ने उसे रोकना चाहा।
”क्यों मेरे हाथ की में जहर लगा है? ”मानो ने सवाल किया । पल- भर रुककर बोली, ”बामन नहीं भ मजदूर है वह.. तुम्हारे जैसा।”
चारों तरफ सनाटा था। जसदेव की झोपड़ी में ढिबरी जल रही थी। मानो ने झोपड़ी का दरवाजा ठेला ” जी कैसा है?” भीतर जाते हुए मानो ने पूछा। जसदेव ने उठने की कोशिश की। उसके मुँह से दर्द की आह निकली।
”कमबख कीडे पड़के मरेगा। हाथपाँव टूटटूटकर गिरेंगे… आदमी नहीं जंगली जिनावर है। ” मानो ने सूबेसिंह को कोसते हुए कहा।
जसदेव चुपचाप उसे देख रहा था।
”यह ले..खा ले। सुबे से भूखा है। दो कौर पेट में जाएँगे तो ताकत तो आवेगी बदन में।” मानो ने रोटी और गुड उसके आगे रख दिया था। जसदेव कुछ अनमना-सा हो गया था। भूख तो उसे लगी थी। लेकिन मन के भीतर कहीं हिचक थी। घर-परिवार से बाहर निकले ज्यादा समय नहीं हुआ था। खुद वह कुछ भी बना नहीं पाया था। शरीर का पोर-पोर टूट रहा था।
”भूख नहीं है।” जसदेव ने बहाना किया।
”भूख नहीं है या कोई और बात है:..” मानो ने जैसे उसे रंगे हाथों पकड़ लिया था।
”और क्या बात हो सकती है?..” जसदेव ने सवाल किया।
”तुम्हारे भइया कह रहे थे कि तुम बामन हो.. .इसीलिए मेरे हाथ की रोटी नहीं खाओगे। अगरयो बात है तो मैं जोर ना डालूँगी… थारी मर्जी… औरत हूँ… पास में कोई भूखा हो.. .तो रोटी का कौर गले से नीचे नहीं उतरता है।.. .फिर तुम तो दिन-रात साथ काम करते हो…, मेरी खातिर पिटे.. .फिर यह बामन म्हारे बीच कहाँ से आ गया…? ” मानो रुआँसी हो गई थी। उसका गला रुँध गया था।”
अब ओमप्रकाश वाल्मीकि जी हमारे बीच में नही है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के अचानक जाने से दलित साहित्य का एक मजबूत स्तंम्भ ढह गया है। वे अपनी लेखनी के माध्यम आज जो लाखों करोडों लोगों के मन और कर्म में जो विद्रोह की ज्वाला प्रज्ज्वलित कर गए है वह कभी नही बुझेगी। वाल्मीकि जी का यह योगदान हमेशा अमिट रहेगा। भारतीय साहित्य और दलित साहित्य में उनकी कमी हमेशा महसूस की जाती रहेगी। वाल्मीकि जी का साहित्य पूरे हिन्दी साहित्य में एक रुके ठहरे जड़ता भरे पानी में फेंके पत्थर के सामान है जिसने उस ठहराव में तूफान ला दिया। ना केवल तूफान उठा दिया बल्कि जातीय पूर्वाग्रह से ग्रसित समाज की बंद आंखो को जबर्दस्ती खोल भी दिया। उनका दलित साहित्य में योगदान को इन कुछ पंक्तियों के माध्यम से आंका जा सकता है।
‘मेरी पीढ़ी ने अपने सीने पर/ खोद लिया है संघर्ष/ जहां आंसुओं का सैलाब नहीं
विद्रोह की चिंगारी फूटेगी / जलती झोपड़ी से उठते धुंवे में /तनी मुट्ठियाँ नया इतिहास रचेंगी।’
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अनिता भारती हिंदी भाषा की जानीमानी लेखिका हैं, कवि हैं, कहानीकार हैं। आलोचना में भी उन्होंने मजबूती से कदम रखा है। उनसे नीचे छपे पते पर संपर्क किया जा सकता है।
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