Sanjay Jothe
अक्सर ही ग्रामीण विकास के मुद्दों पर काम करते हुए गाँवों में लोगों से बात करता हूँ या ग्रामीणों के साथ कोई प्रोजेक्ट की प्लानिंग करता हूँ तो दो बातें हमेशा चौंकाती हैं।
पहली बात ये कि ग्रामीण सवर्ण लोग मूलभूत सुविधाओं जैसे सड़क, बिजली, तालाब, स्कूल आदि बनवाने की बजाय मंदिर, श्मशान, कथा, यज्ञ हवन भंडारे आदि में ज्यादा पैसा खर्च करते हैं। दुसरी बात ये कि जहाँ भी सार्वजनिक या सामाजिक संसाधन निर्मित करने की बात आती है वहां स्वर्ण हिन्दू एकदम से धर्मप्राण होकर विकास के खिलाफ हो जाते हैं और भूमिहीन दलित आदिवासी ओबीसी गरीब समुदाय चाहकर भी कुछ कर नहीं पाते।
सीधे तौर पर आप देख सकते हैं कि ग्रामीण भारत के सवर्ण द्विज हिन्दू समुदाय में सामाजिक सहयोग से सड़क बिजली पानी और रोजगार आदि को लेकर कोई बड़ा काम करने की इच्छा नहीं होती। हाँ व्यक्तिगत रूप से वे अपने परिवार जाति समूह आदि में इन मुद्दों पर खूब काम करते हैं और किसी दूसरे समुदाय को घुसने नहीं देते। लेकिन पूरे गाँव के लिए मूलभूत सुविधा की प्लानिंग के लिए उनमे एकदम से वर्णाश्रम धर्मबुद्धि जाग जाती है।
ये सवर्ण लोग गांवों में विकास की प्लानिंग में मंदिर और श्मशान पर बहुत जोर देते हैं। हालाँकि गांव में मंदिरों की कोई कमी नहीं होती है। और श्मशान भी एक ही बार जाना है – वो भी मरकर। तो फिर मंदिर और श्मशान पर इतना जोर देने की जरूरत क्या है?
जरूरत है, बहुत गहरी जरूरत है। असल में अगर गांव में सड़क, बिजली, शिक्षा, रोजगार या जीवन की अन्य सुविधाएं बढ़ती हैं तो इसका फायदा सवर्ण द्विज हिंदुओं को नहीं मिलेगा। वो इसलिए कि इनके पास तो ये सब सुविधाएं पहले से ही है। लेकिन इन सब सुविधाओं के बिना जीते आये भूमिहीन गरीब दलित ओबीसी आदिवासियों को इससे तुरन्त फायदा होगा। उनके बच्चे जल्दी ही शिक्षित, स्वस्थ और जागरूक हो सकेंगे। एक या दो पीढ़ी में ही ग्रामीण दबंगों को चुनौती मिलने लगेगी। बेगार, बलात्कार, शोषण बन्द हो जाएगा। राजनितिक समीकरण बदल जायेगा। और समझदार ग्रामीण सवर्ण ये कभी नहीं होने देंगे। इसलिए वे हर योजना हर प्लानिंग में घुसकर पूरे गाँव को मंदिर, श्मशान,धर्मशाला, भंडारा, कथा, प्रवचन, ध्यान, समाधी आदि में उलझाये रखते हैं।
लेकिन मंदिर या श्मशान या अध्यात्म करते क्या हैं?
असल में जाति को बनाये रखने का एक ही तरीका है। जीवन के लिए जो भी जरूरी है उसकी निंदा करो और मृत्यु और मृत्यु के बाद की बकवास की प्रशंसा करो। यही रहस्यवाद, ध्यान समाधी, धर्म, वेदांत, सूफी, भक्ति आदि का कुल जमा काम रहा है। वे परलोक जन्नत मोक्ष पुनर्जन्म, साल्वेशन, ईश्वर आदि की फफूंद उड़ाते रहेंगे और इस जिंदगी के मुद्दों पर, सड़क शिक्षा रोजगार तालाब आदि पर कोई काम नहीं होने देंगे।
अब जैसे ही आप मंदिर, मस्जिद, चर्च या श्मशान जाते हैं वैसे ही इस जीवन से ज्यादा चिंता परलोक की होने लगती है। बस इसी मौके की तलाश में सारे पोंगा पंडित और मुल्ला पादरी आदि रहते हैं। आपमें ये परलोक का भय पैदा होते ही वे अपने शास्त्र, मिथक, कर्मकांड, रहस्यवाद और अध्यात्म लेकर घुस जाते हैं और आपको सड़क, शिक्षा रोजगार से हटाकर ध्यान, समाधी, श्राद्ध, रोज़ा, ज़कात, साल्वेशन, मोक्ष आदि में उलझा लेते हैं।
भारत में इसी ढंग से जिंदगी की मूलभूत सुविधाओं को नकारकर परलोक की सुविधाओं पर फोकस बनाये रखा जाता है। फिर इस लोक में भूमिहीन गरीब दलित ओबीसी आदिवासी के बच्चे कुपोषित, अशिक्षित, बेरोजगार बने रहते हैं और वर्णाश्रम (असल में जाति) व्यवस्था बनी रहती है।
इसलिए जाति व्यवस्था और इसके शोषण को बनाये रखने के लिए मंदिर और श्मशान बहुत बड़ी भूमिका निभाते आये हैं। ये ही भारत के दुर्भाग्य के स्त्रोत हैं।
इसलिए जब कोई मंदिर या श्मशान की बात करे तो सावधान हो जाइये कि वे सज्जन असल में समाज को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।
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संजय जोठे लीड इंडिया फेलो हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। समाज कार्य में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी कररहे हैं।
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