Essay 2. ‘What Babasaheb Ambedkar Means to Me’
Ravindra Kumar Goliya
आप सभी को बाबासाहब की १२५वीं जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं|
आप सब से मैं पूछना चाहता हूँ कि हम बाबासाहब की जयंती क्यों मनाते हैं? क्या सिर्फ उन्हें याद करने के लिए? क्या सिर्फ यह याद कर लेने से काम चल जायेगा कि बाबासाहब ने हमारे लिए यह किया या वह किया? क्या हम उन्हें एक भगवान की तरह एक दिन के लिए याद करते हैं और साल भर के लिए भूल जाते हैं? अगर हम सिर्फ ऐसा करते हैं तो यह बाबासाहब के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी होगी| क्योंकि बाबासाहब ने कहा है कि हमें नायकों की पूजा करने से बचना चाहिए|
तो क्या हमें बाबासाहब की जयंती या किसी भी महापुरुष की जयंती नहीं मनानी चाहिए? अगर हम सिर्फ उन्हें याद कर रहे हैं, उनकी जीवनी पढ़ ले रहे हैं तो बिलकुल नहीं मनानी चाहिए| अगर मनाना ही है तो हमें उनके विचारों पर चर्चा करनी चाहिए और उन विचारों का आज के सन्दर्भ में विश्लेषण करना चाहिए| मेरी कोशिश रहेगी कि मैं अपनी बात आज के सन्दर्भ में ही रखूं| अभी आपने देखा देश में राष्ट्रवाद पर काफी चर्चा चल रही है| वैसे एक ऐसे देश में जिसका संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकाँक में १८८ देशों में से १३०वाँ स्थान है उस देश में बहस इस बात पर ज्यादा होनी चाहिए कि हम अपनी स्वास्थ्य सेवाएं कैसे ठीक कर सकते हैं? हम कैसे सभी के लिए एक जैसी शिक्षा व्यवस्था लागू कर सकते हैं? या कैसे हम सभी भारतीयों के जीवन स्तर में सुधार ला सकते हैं? जीवन की ये मूलभूत आवश्यकताएं कैसे सभी को उपलब्ध हो सकती हैं, चाहे वह अमीर हो या गरीब हो, शहर में रहता हो या गाँव में रहता हो, वह किसी भी धर्म या जाति का हो? आखिर तभी तो हम एक विकसित राष्ट्र बनेंगे| लेकिन हम कहाँ व्यस्त हैं? हम राष्ट्रवाद की बहस में लगे हुए हैं|
आपने टीवी पर चर्चाओं में राष्ट्रवाद पर बहुत सारी बातें सुनी होंगी, मैं यहाँ उन्हें नहीं दोहराना चाहता| बाबासाहब राष्ट्र के बारे में क्या सोचते थे अगर हमें जानना है तो हमें उनकी २५ नवम्बर १९४९ का संविधान सभा में दिया गया भाषण पढना चाहिए| यह भाषण कई सन्दर्भों में आज उस समय से कहीं ज़्यादा प्रासंगिक है| वे कहते हैं “मेरा मानना है कि यह समझने में कि, हम एक राष्ट्र हैं हम एक बड़ी भूल करेंगे| हजारों जातियों में विभाजित लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं?
जितनी जल्दी हम यह समझ लें कि दुनिया के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थों में हम एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना हमारे लिए अच्छा| तभी हम इसे एक राष्ट्र बनाने के लिए कुछ ठोस प्रयास करेंगे और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तरीकों को खोजेंगे| इस लक्ष्य की प्राप्ति आसान नहीं होगी, जितनी अमेरिका में थी उससे भी कहीं ज्यादा कठिन, क्योंकि वहां जातियां नहीं थीं| जातियां राष्ट्रविरोधी हैं| एक तो यह सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं| और यह राष्ट्रविरोधी इसलिए भी हैं क्योंकि यह जातियों के बीच जलन और द्वेष पैदा करती हैं| लेकिन हमें इन समस्याओं को हल करना होगा अगर हम चाहते हैं कि हम राष्ट्र बनें| बंधुत्व तभी हो सकता है जब हम एक राष्ट्र होंगे| बिना बंधुत्व के समता और स्वतंत्रता सिर्फ लीपापोती की तरह ही होंगी|”
हम सब जानते हैं कि हमारे संविधान की नींव इन्हीं तीन सिद्धांतों पर रखी हुई हैं- समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व| इसीलिए हमें यह भी समझना होगा कि संविधान प्रदत्त आरक्षण राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का एक हिस्सा है| और इसे ऐसे ही देखा जाना चाहिए न कि गरीबी उन्मूलन के किसी कार्यक्रम की तरह| आरक्षण किसी भी लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग है| अगर लोकतंत्र में आप सभी समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं देंगे, समता स्थापित नहीं करेंगे तो आपस में बंधुत्व का भाव कभी पैदा नहीं होगा| और बिना बंधुत्व के राष्ट्र की कल्पना ही नहीं की जा सकती|
एक फ्रेंच समाज वैज्ञानिक हुए हैं अर्नेस्ट रीनन, वे राष्ट्र को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि राष्ट्र वह होता है जिसके अपने साझा सुख और साझा दुःख होते हैं| आगे वे कहते हैं कि एक राष्ट्र के लिए साझा दुःख होना बहुत ज़रूरी है क्योंकि दुःख एक ज़िम्मेदारी का एहसास पैदा करते हैं| हमें हमारे त्याग याद दिलाते हैं और एक अच्छे साझा भविष्य के लिए फिर त्याग करने के लिए हमें प्रेरित करते हैं| हम लक्ष्मनपुर बाथे, बथानी टोला, मारिचझापी जैसे दलित नरसंहारों के लिए दुखी तो छोड़िए, उनके बारे में अगर जानते भी नहीं हैं तो हम किस राष्ट्र की बात कर रहे हैं? यह बहस किस राष्ट्रवाद के लिए चल रही है? इन सारे प्रश्नों के बारे में हमें सोचना चाहिए|
अंत में मैं यही कहना चाहूँगा कि यह अच्छी बात है की आज पूरा देश बाबासाहेब की १२५वीं जयंती मना रहा है| लेकिन हमारा देश अजीब विरोधाभासों का देश है| जैसे भारत सरकार के उपक्रमों में SC/ST Employees Association यह कार्यक्रम हर साल आयोजित करती है| अब बाबासाहब ने अंग्रजों से मजदूरों के हक की बात की और कार्यालयी समय जो कि उस समय १४ से १८ घंटे होता था उसे ८ घंटे करवाया तब वह सिर्फ sc/st कर्मचारियों के लिए थोड़े ही करवाया था| मैटरनिटी लीव जो सभी महिलाओं को मिलती है वो भी बाबासाहब के प्रयासों का ही परिणाम है| हिन्दू कोड बिल जो कि महिलाओं को कई अधिकार प्रदान करता था उसका विरोध उस समय महिलाओं ने ही किया| उसके पास न होने पर बाबासाहब ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया| लेकिन तब भी इस देश में महिलाओं के लिए संघर्ष करने वालों ने बाबासाहब को कभी अपना आदर्श नहीं माना| संसद मार्ग पर हर साल हर बैंक के SC/ST Employees Associations स्टॉल लगाते हैं| जबकि हम यह जानते हैं कि, रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की स्थापना बाबासाहब की पीएचडी थीसिस “Problem of Rupee in India and its Remedies” की संकल्पना पर आधारित है| पूरे देश की मौद्रिक नीति यहीं से संचालित होती है, फिर सिर्फ बैंकों के SC/ST Employees Associations ही वहां स्टॉल क्यों लगाते हैं, यह मेरी समझ से परे है| अभी मैं एक दिन समाज शास्त्र का बी.ए. का पाठ्यक्रम देख रहा था| वहां वर्णाश्रम और जाति के बारे में भी दिया हुआ था| उसे पढ़ाने के लिए कई विदेशी और कुछ भारतीय विशेषज्ञों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था लेकिन बाबासाहब जिन्होंने अपना पूरा जीवन इस बुराई से लड़ने में लगा दिया और जातियों की उत्पत्ति के बारे में काफी रिसर्च के बाद कई किताबें लिखी उनका कहीं ज़िक्र तक नहीं|
बाबासाहेब को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम समतामूलक, जातिविहीन समाज की स्थापना के लिए प्रयास करें|
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Ravindra Kumar Goliya is Asst Prof at Jaypee University of Engineering and Technology, Guna, Madhya Pradesh
Image courtesy: Ambedkar.org