Sanjay Jothe
रहस्य रोमांच के बहाने मनोरंजन की तलाश करते समाजों या लोगों पर कभी गौर कीजिये गजब के परिणाम हाथ लगेंगे। रहस्य और चमत्कार तो खैर अतिरंजित बाते हैं, सामान्य मनोरंजन के चुनाव की प्रवृत्ति भी पूरे समाज के मनोविज्ञान को नंगा करने के लिए काफी है।
किस तरह के टीवी सीरियल्स और फ़िल्में मकबूल हो रही हैं, उससे आप जान सकते हैं कि पूरा समाज किस दिशा में जा रहा है।
टीवी सीरियल्स और फिल्मों के बीच हालाँकि एक स्पष्ट और जाहिर सा जेंडर का भेद होता है। अधिकांश फ़िल्में पुरुष वर्ग के लिए और टीवी सीरियल्स स्त्री वर्ग के लिए होते हैं। हालांकि ये सामान्यीकरण पूरी तरह ठीक नहीं है फिर भी कुछ दूर तक ठीक है।
इन दोनों में रहस्य या थ्रिल की बात आती है तो देखिये कि कहानी किस दिशा में रची जाती है? भारत में बड़े और भव्य सीरियल जो कल्पनाशीलता से भरे फिक्शन परोस रहे हैं वे मिथकों में घुसे जा रहे हैं। अब संतोषी माँ भी मैदान सम्भाल चुकी हैं जिनका किसी पुराने हिन्दू शास्त्र में कोई उल्लेख नहीं, ये साईं बाबा की तरह अवैदिक और आधुनिक एंट्री है। लेकिन आधुनिक होने के बावजूद इनके चमत्कार सनातन श्रेणी और स्तर के ही हैं, मजा ये भी है कि कालक्रम में मिथक फिक्शन जितना पीछे जाता है उतना चमत्कारी होता जाता है।
समाज के मनोविज्ञान पर जो जितनी बड़ी मूर्खता फैला दे वो उतना प्रतापी देवता या अवतार बन जाता है और उसे वैसे ही प्रचारित भी किया गया है, रत्ती रत्ती मेहनत करके कोई महान कार्य सिद्ध करने वाले लोग इस देश में नायक नही बनते बल्कि अचानक किसी देवी देवता की चापलूसी करके या वरदान पा जाने वाले और फूंक मारकर पहाड़ उड़ाने वाले या सूर्य को निगल जाने वाले किरदार नायक बने रहते हैं। दुर्भाग्य ये कि ये नायक व्यक्तिगत या सामूहिक जीवन में तर्कबुद्धि, संगठित प्रयास भाईचारे या सहयोग जैसे लोकतान्त्रिक मूल्य को रेखांकित नहीं करते बल्कि किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के सन्धान को वैध ठहराने का या व्यक्तिगत मोक्ष या सन्तोष को ही अंतिम मूल्य बताने का उपाय करते हैं।
सामूहिकता और सामूहिक शुभ की धारणा का ये अभाव और बहुत ही आत्मकेंद्रित सा स्वार्थभरा ये दृष्टिकोण ही सारे चमत्कारी मिथकों का सार है। जो समाज इससे जितने दूर निकल गए हैं उतने ही वे वैज्ञानिक सभ्य और विकसित बन सके हैं। पूरा पश्चिमी समाज मिथकों की धुंध काटकर निकल आया है, अब बहुत थोड़ी संख्या में वहां मिथकीय चमत्कार वाली फ़िल्म बनती है। बड़ी संख्या में वहां थ्रिल और रहस्य के नाम पर साइंस फिक्शन बनता है जिसमें भविष्य की मानवता के लिए नए नैतिक मूल्यों सहित जीवन में शुभ की सामूहिक खोज का या अशुभ के निषेध का गहरा आग्रह छुपा होता है।
ये बड़ा अंतर है, भारतीय समाज साइंस फिक्शन या सुपर हीरो भी रचेगा तो वो भी किसी पौराणिक कथा से ही उठाकर लाएगा या उसी का संस्करण होगा। पहले यह तय कर लिया जाएगा कि समाज की स्थापित अवैज्ञानिकता, मूर्खता, पुरातन सदाचार और नैतिकता की धारणा पर कोई प्रश्न न उठे, फिर उसका किरदार फैलाया जाता है। अगर वो किरदार भाग्यवाद और मानसिक गुलामी का समर्थन करता हो तो उसे बहुत पसन्द किया जाता है।
सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो ये कि मासूम बच्चों को भी अवैज्ञानिक अतार्किक और भाग्यवादी आग्रहों से भरे मिथकीय किरदार ही कार्टून की शक्ल में परोसे जा रहे हैं। गौर से देखिये, ये उन प्रौढ़ अवतारों के ही बच्चा संस्करण हैं, भीम का बच्चा संस्करण छोटा भीम और न जाने क्या क्या। फिर उच्च शिक्षित लोग भी अपने बच्चों को उन्ही किरदारों की तरह सजा धजाकर फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर भी डालते हैं। उन्हें इस सब में बड़ा गर्व अनुभव होता है। लेकिन वे नहीं समझ पाते कि वे अपने बच्चे में वैज्ञानिक चित्त और साहस की हत्या कर रहे हैं। ये बच्चे कभी कोई नई चीज नहीं कर पाएंगे। विदेश से रॉकेट साइंस भी सीख लेंगे तो भी उसे सबसे पहले नारियल फोड़कर पवित्र बनाएंगे, तब किसी काम में लेंगे।
आजकल जो मिथकीय कार्टून चल रहे हैं उन सबको देखने वाले बच्चों से कभी बात करके देखिये, ये बच्चे सामान्य से कार्य कारण सिद्धांत को भी समझने से इंकार करने लगते हैं। कोई आदमी हवा में उड़कर पहाड़ उठा ले या एक सांस में समन्दर पी जाए तो उसे देखकर चमत्कृत होने वाले बच्चे के मन में एक भयानक बिमारी घुस जाती है। ये बच्चे कार्य और कारण की तार्किक संगति को नहीं समझ पाते। कितने प्रयास से कितना परिणाम निकलता है इस बात का अंदाजा बच्चों को होना चाहिए। जैसे कि एक फूंक मारने से एक कागज का टुकड़ा उड़ाया जा सकता है, ये बात सामान्य तर्क में समझ में आती है। हवाई जहाज उड़ने के लिए बड़ी तेज हवा की जरूरत होगी ये इसी तर्क का विस्तार है।
लेकिन आपका देवता ये कहे कि किसी मन्त्र को पढ़कर या कोई भगवान की कृपा से वो आसमान तो क्या गृह नक्षत्रों तक उड़कर पहुँच जाता है, तो ये किरदार बच्चों को अवैज्ञानिक और मूर्ख बनाएगा। ऐसे बच्चों का समाज हजारों साल तक पुष्पक विमान की बात जरूर करेगा लेकिन साइकिल की टेक्नालजी तक खुद नहीं खोज पायेगा।
पश्चिमी समाज भी सुपरमैन को जरूर उडाता है, स्पाइडरमैन या हल्क को खड़ा करता है। लेकिन उसके पीछे एक स्पष्ट से वैज्ञानिक सिद्धांत को अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाता है। सुपरमैन जुपिटर से आया है वहां के और धरती के गुरुत्वाकर्षण में अंतर की वजह से वह चमत्कार कर पाता है, स्पाइडरमैन और हल्क किसी जेनेटिक म्यूटेशन से जन्मे हैं। इन किरदारों को देखकर बड़े हुए बच्चे आज भी दुनिया को साइंस, टेक्नोलॉजी, उच्च शिक्षा, शोध और भविष्य का काव्य, साहित्त्य, क्रांति लोकतन्त्र और नैतिकता सिखा रहे हैं।
लेकिन जो बच्चे अवतारों और देवताओं को पूज रहे हैं वे आज तक गोबर गौमूत्र योग तन्त्र मन्त्र और चमत्कारी ताबीज में ही उलझे हुए हैं। विज्ञान के लाख दावे करने के बावजूद उनके पुष्पक विमान धरे रह जाते हैं और देश के कुल बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा रक्षा तकनीक और राफेल फाइटर प्लेन खरीदने में खर्च होता हैै, इसके बाद भी इस समाज को शर्म नहीं आती कि अपने इतिहास मिथकों और धर्म पर पुनर्विचार करे और अपने बच्चों को उससे दूर रखें। दुःख तो तब होता है कि इंग्लिश स्कूलों में भी कल्चरल प्रोग्राम्स में ऋषि मुनि और देवताओं को ही परोसा जा रहा है।
इसलिए आप सब से निवेदन है कि बच्चों के मनोरंजन को हल्के में मत लीजिये। ये बहुत गंभीर मामला है। आप किस तरह का सीरयल या फ़िल्म या कार्टून बच्चों को दिखा रहे हैं उसी से आपके बच्चों का भविष्य तय होने वाला है। उसी से समाज और देश की दशा और दिशा तय होने वाली है। आपको तय करना है कि आपके बच्चे वैज्ञानिक और कर्मठ बनेंगे या वैज्ञानिक शिक्षा हासिल करने के बावजूद भी अश्वत्थामा और पारस मणि ढूँढने वाले धार्मिक मूर्ख और पाखण्डी बनेंगे।
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Sanjay Jothe is a Lead India Fellow, with an M.A.Development Studies,(I.D.S. University of Sussex U.K.), PhD. Scholar, Tata Institute of Social Sciences (TISS), Mumbai, India.
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