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The Farm is Sad – Om Prakash Valmiki

April 4th, 2014 by admin

Translation from Om Prakash Valmiki's Hindi poem 'Khet Udaas Hain

The bird is sad
for the emptiness of the forest.
The children are sad
for – hammered like a nail 
on the doors of the big houses –
this grief of the bird.

The farm is sad —
that even after a full harvest
he, with mortar on his head,
is going up and down the ladder
against that wall being built.

The girl is sad —
till when can she hide the birth.

And the rented hands
are writing on the wall
'To be sad
is against the spirit of India!'.

 

खेत उदास हैं / ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

चिड़िया उदास है
जंगल के खालीपन पर
बच्चे उदास हैं
भव्य अट्टालिकाओं के
खिड़कीदरवाज़ों में कील की तरह
ठुकी चिड़िया की उदासी पर

खेत उदास हैं
भरपूर फ़सल के बाद भी
सिर पर तसला रखे हरिया
चढ़उतर रहा है एकएक सीढ़ी
ऊँची उठती दीवार पर

लड़की उदास है
कब तक छिपाकर रखेगी जन्मतिथि

किराये के हाथ
लिख रहे हैं दीवारों पर
'उदास होना
भारतीयता के खिलाफ़ है !'

Source: From here

Akhil Katyal is a writer and translator based in Delhi. He is an Assistant Professor at the Department of English at Shiv Nadar University. He finished his PhD from SOAS, University of London in 2011 and his poetry, fiction and translations have been published widely.

 

Reclamation

January 26th, 2014 by admin

Sruthi Herbert

My story

Starts with me.

 

I am a woman

With a name

But

without memory

without a past.

 

This blank slate of existence,

Those non-existing photographs,

The missing tombstones,

And the unknown legacy.

What does that tell you about me?

 

The only clues I hold,

My name.

My father's name.

His two initials.

My mother

Her name.

Her two initials.

 

That is the whole and soul

The sum and substance

The living traces

Of unworthy lives

And unwritten glories.

 

Those initials,

The unwritten names

They are my passport

To a long-lost story.

That is my claim

To memory and history.

 

Sruthi Herbert is a researcher who seeks to interpret the Indian society from the vantage point of the oppressed and the underprivileged. She is starting her doctoral degree in the School of Oriental and African Studies, University of London, and has previously studied at the Tata Institute of Social Sciences, Mumbai, and the Centre for Development Studies, Thiruvananthapuram.

ओम प्रकाश वाल्मीकि: हिंदी साहित्य के स्तम्भ नहीं रहे

November 17th, 2013 by admin

अनिता भारती

 

om prakash valmiki

दलित साहि्त्य के सशक्त हस्ताक्षर व वरिष्ठ लेखक ओमप्रकाश बाल्मीकि जी का आज सुबह परिनिर्वाण हो गया। वे पिछले एक साल से 'बड़ी आंत की गंभीर बीमारी' से जूझ रहे थे। उनका हिन्दी साहित्य और दलित साहित्य में उनके अवदान और उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रोज उनसे मिलने वालों, फोन करने वालों और उनके स्वास्थ्य में शीघ्र सुधार होने की कामना करने वालों की संख्या हजारों में थी।

ओमप्रकाश बाल्मीकिजी पिछले एक सप्ताह से देहरादून के एक प्राईवेट अस्पताल मैक्स में दाखिल थे। उनके स्वास्थ्य की हालत चिंताजनक थी, इसके बाबजूद वह वे बहुत बहादुरी से अपनी बीमारी से लड़ रहे थे। पिछले साल 10 अगस्त 2013 में उनकी बडी आंत का सफल आपरेशन हुआ था। आपरेशन सफल होने के बाबजूद वे इससे उभर नहीं पाएं।

ओमप्रकाश बाल्मीकि उन शीर्ष लेखकों में से एक रहे है जिन्होने अपने आक्रामक तेवर से साहित्य में अपनी सम्मानित जगह बनाई है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होने कविता, कहानी, आ्त्मकथा से लेकर आलोचनात्मक लेखन भी किया है। अपनी आत्मकथा "जूठन" से उन्हें विशेष ख्याति मिली है। जूठन में उन्होने अपने और अपने समाज की दुख-पीडा-उत्पीडन-अत्याचार-अपमान का जिस सजीवता और सवेंदना से वर्णन किया वह अप्रतिम है। यह एक बहुत बडी उपलब्धी है कि आज जूठन का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. जूठन के अलावा उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में "सदियों का संताप", "बस! बहुत हो चुका" ( कविता संग्रह) तथा "सलाम" ( कहानी संग्रह ) दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र (आलोचना) आदि है। बाल्मीकि जी अब तक कई सम्मानों से नवाजे जा चुके है जिनमें प्रमुख रुप से 1993 में डॉ.अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 1995 में परिवेश सम्मान है।

हिन्दी साहित्य और दलित साहित्य के शीर्ष साहित्यकार का अचानक असमय चले जाना बेहद दुखद है। वे मात्र अभी 63 साल के ही थे। वो अभी दो-तीन साल पहले ही देहरादून की आर्डनेंस फैक्ट्ररी से रिटायर हुए थे। उनका बचपन बहुत कष्ट-गरीब-अपमान में बीता। यही कष्ट-गरीबी और जातीय अपमान-पीडा और उत्पीडन उनके लेखन की प्रेरणा बने। उनकी कहानियों से लेकर आत्मकथा तक में ऐसे अऩेक मार्मिक चित्र और प्रसंगों का एक बहुत बड़ा कोलाज है। वह विचारों से अम्बेडकरवादी थे। बाल्मीकि जी हमेशा मानते थे कि दलित साहित्य में दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है। क्योंकि उनका मानना था कि दलित ही दलित की पीडा़ और मर्म को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। ओमप्रकाश बाल्मीकि जी के अचानक जाने से दलित साहित्य का एक स्तंम्भ ढह गया है. उनकी क्षति बेहद अपूर्णनीय है।

valmiki anita bharti

अनीता भारती जी ओम प्रकाश बाल्मिकीजी के साथ

~~

वाल्मीकि सर, आपसे अपनी चंद मुलाकातों से नहीं

आपकी स्मृति मेरे पुराने अल्हड दिनों से वाबस्ता है

जिनमे, मैंने

आपकी पंजाबी भाषा में अनुदित आत्मकथा

'जूठ' को जिया था

और तब कैसे मुझसे

अपने आप ही

इक खतरनाक अनुशासन छूट हो गया था

अन्दर से जैसे मैं बहुत सध गया था

 

और अपना सच भी तो

यही था/है कि अपने समाज के हस्बे हिसाब

शब्द केवल हर्फ़ नहीं होते

वो गोली भी होते हैं

अंगार भी

वो सैलाब भी होते हैं

पतवार भी

ये आन्दोलन के बीज तो हवाओं पर भी उग सकते हैं

और इनकी जड़ें

मिटटी को तरसा के

खुद, तना, पत्ते, फूल, फल बनने की

ज़िम्मेदारी उठा सकती है

 

लगभाग डेढ़ बरस पहले

जब दीनामणि 'इनसाइट' के दफ्तर आके

'खेत ठाकुर का अपना क्या रे' गीत की

खुद भी और मुझसे भी रिहर्सल करवा रहा था, तब

वही ताक़त मैं इस गीत को गाते हुए

जी रहा था!!

वाल्मीकि सर, आप ज़हन में हमेशा रहोगे

और ताक़त बन के रहोगे

मगर ज़हन में असरदराज़

भावनाओं के कोने

आपको बहुत टूट टूट कर याद करेंगे, सर !!!

~ गुरिंदर आज़ाद

~

ओम प्रकाश वाल्मीकि जी की कुछ चुनिंदा रचनाएं:

सदियों का संताप

दोस्‍तो !
बिता दिए हमने हज़ारों वर्ष
इस इंतज़ार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
ज़हरीले पंजों समेत.

फिर हम सब
एक जगह खडे होकर
हथेलियों पर उतार सकेंगे
एक-एक सूर्य
जो हमारी रक्‍त-शिराओं में
हज़ारों परमाणु-क्षमताओं की ऊर्जा
समाहित करके
धरती को अभिशाप से मुक्‍त कराएगा !

इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को
पारदर्शी पत्‍तों में लपेटकर
ठूँठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर
टाँग दिया है
ताकि आने वाले समय में
ताज़े लहू से महकती सड़कों पर
नंगे पाँव दौड़ते
सख़्त चेहरों वाले साँवले बच्‍चे
देख सकें
कर सकें प्‍यार
दुश्‍मनों के बच्‍चों में
अतीत की गहनतम पीड़ा को भूलकर

हमने अपनी उँगलियों के किनारों पर
दुःस्‍वप्‍न की आँच को
असंख्‍य बार सहा है
ताजा चुभी फाँस की तरह
और अपने ही घरों में
संकीर्ण पतली गलियों में
कुनमुनाती गंदगी से
टखनों तक सने पाँव में
सुना है
दहाड़ती आवाज़ों को
किसी चीख़ की मानिंद
जो हमारे हृदय से
मस्तिष्‍क तक का सफ़र तय करने में
थक कर सो गई है ।.

दोस्‍तो !
इस चीख़ को जगाकर पूछो
कि अभी और कितने दिन
इसी तरह गुमसुम रहकर
सदियों का संताप सहना है !

(जनवरी, 1989)

~

शंबूक का कटा सिर

जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर
घड़ी भर सुस्‍ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्‍कारें गूँजने लगी
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों लाशें
ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर ।

मैं उठकर भागना चाहता हूँ
शंबूक का सिर मेरा रास्‍ता रोक लेता है
चीख़-चीख़कर कहता है–
युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूँ
बार-बार राम ने मेरी हत्‍या की है ।

मेरे शब्‍द पंख कटे पक्षी की तरह
तड़प उठते हैं–
तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्‍वी
यहाँ तो हर रोज़ मारे जाते हैं असंख्‍य लोग;
जिनकी सिसकियाँ घुटकर रह जाती है
अँधेरे की काली पर्तों में

यहाँ गली-गली में
राम है
शंबूक है
द्रोण है
एकलव्‍य है
फिर भी सब ख़ामोश हैं
कहीं कुछ है
जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्‍त से सनी उँगलियों को महिमा-मंडित ।

शंबूक ! तुम्‍हारा रक्‍त ज़मीन के अंदर
समा गया है जो किसी भी दिन
फूटकर बाहर आएगा
ज्‍वालामुखी बनकर !

(सितंबर 1988)

~

युग-चेतना

मैंने दुख झेले
सहे कष्‍ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने
फिर भी देख नहीं पाए तुम
मेरे उत्‍पीड़न को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको ।

इतिहास यहाँ नकली है
मर्यादाएँ सब झूठी
हत्‍यारों की रक्‍तरंजित उँगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जड़ी अँगूठियाँ ।

कितने सवाल खड़े हैं
कितनों के दोगे तुम उत्‍तर
मैं शोषित, पीड़ित हूँ
अंत नहीं मेरी पीड़ा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाए
मेरी संपत्ति पर ।

मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूँ
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्‍कासित हूँ
प्रताडित हूँ ।

इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जर हूँ
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको ।

(अक्‍टूबर 1988)

~

 ठाकुर का कुआँ

चूल्‍हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।

कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्‍ले ठाकुर के
फिर अपना क्‍या ?
गाँव ?
शहर ?
देश ?

(नवम्बर, 1981)

~

जूता

हिकारत भरे शब्द चुभते हैं
त्वचा में
सुई की नोक की तरह
जब वे कहते हैं–
साथ चलना है तो क़दम बढ़ाओ
जल्दी-जल्दी

जबकि मेरे लिए क़दम बढ़ाना
पहाड़ पर चढ़ने जैसा है
मेरे पाँव ज़ख़्मी हैं
और जूता काट रहा है

वे फिर कहते हैं–
साथ चलना है तो क़दम बढ़ाओ
हमारे पीछे-पीछे आओ

मैं कहता हूँ–
पाँव में तकलीफ़ है
चलना दुश्वार है मेरे लिए
जूता काट रहा है

वे चीख़ते हैं–
भाड़ में जाओ
तुम और तुम्हारा जूता
मैं कहना चाहता हूँ —
मैं भाड़ में नहीं
नरक में जीता हूँ
पल-पल मरता हूँ
जूता मुझे काटता है
उसका दर्द भी मैं ही जानता हूँ

तुम्हारी महानता मेरे लिए स्याह अँधेरा है ।

वे चमचमाती नक्काशीदार छड़ी से
धकिया कर मुझे
आगे बढ़ जाते हैं

उनका रौद्र रूप-
सौम्यता के आवरण में लिपट कर
दार्शनिक मुद्रा में बदल जाता है
और, मेरा आर्तनाद
सिसकियों में

मैं जानता हूँ
मेरा दर्द तुम्हारे लिए चींटी जैसा
और तुम्हारा अपना दर्द पहाड़ जैसा

इसीलिए, मेरे और तुम्हारे बीच
एक फ़ासला है
जिसे लम्बाई में नहीं
समय से नापा जाएगा।

~~~

(प्रख्यात कहानीकार, आलोचक और कवियत्री अनीता भारती दलित हिंदी साहित्य का एक मक़बूल नाम है। गुरिंदर आज़ाद हिंदी एवं पंजाबी भाषा में अपनी लेखनी से दलित आवाज़ बुलन्द करते रहे हैं. दिल्ली और आसपास के क्षेत्र में दलित युवाओं के बीच वे सक्रीय हैं।)

I won’t spit on your face

November 10th, 2013 by admin

Gurram Seetaramulu

Now I understand

Why you tied a pot

Below my mouth, and a broom

Around my arse!

If I spat at your ugly face,

My spit would have been defiled!

I was nourished by amniotic fluid,

Not weaned on vomit like you!

I know everyone is born

From the loins, but weren’t you born

From the mouth!

That’s why you vomit vomit!

Aren’t you a septic tank from head to toe,

With a mouth that has gone to rot

From the chanting of dishonest slokas

For ages!

Aren’t you Manu’s child

Who remains impassive

Even when spat at or

Showered with dirt!

That is why

I won’t defile my spit

By spitting at your face!

abvp attacks prof. geelani

My translation of Gurram Seetaramulu's untitled Telugu poem written in protest against an attack by ABVP activists on Prof. S A R Geelani, at a Delhi University seminar in November, 2008.

Gurram Seetaramulu is a doctoral fellow at EFLU. 

 

Two poems by Chandramohan S

September 23rd, 2013 by admin

The rape and murder of a tribal girl

Chandramohan S

No newspaper carried a headline or a photo feature,
 
No youth were roused to protests,
 
No city's life came to a standstill,
 
No furor in the parliament,
 
No nation's conscience was haunted,
 
No Prime minister addressed the nation,
 
No TV channel discussions,
 
No police officials were transferred or suspended,
 
No candle light marches,
 
No billion women rising,
 
a tribal girl was raped and murdered!

~
Casteless society and Secular state

Do talk about haves and have nots

Do not talk about caste!

Do talk about workers and owners

Do not talk about caste!

Do talk about “proletariat” and “bourgeoisie”

Do not talk about caste!

Religious conversions of Christianity,

Ideological conversions to communism,

Theological conversions to atheism

Do not

Scrub off the stain of casteism

Do not

Deodorize the stench of untouchability

Do not

Obliterate caste!

There are no emancipatory ladders

To

Descend the ascending scales of reverence

Or

Ascend the descending scales of contempt.
 

Chandramohan S is a poet and activist based in Ernakulam, Kerala.

 

ezhava

September 6th, 2013 by admin

Shruti Tharayil

ezhava

is what i am

“we were untouchables” my mother whispered

when i asked where my roots go

 

ezhava

was what i was born as

“you should not claim reservations

use your merits, as you have the privilege”

my father often opined

 

ezhava

an identity erased by history

“…but you don't look like one of us,”

what do you mean?

“you don' look like a dalit

your colour is not dalit!

your clothes are not dalit !

and of course your class is not dalit!”

 

ezhava

so how does one become a dalit?

even if my lived reality sometimes spells out dalit

when you are not yet uppercaste

“we are nambiars!

we don't worship Narayana Guru”

once my friend told me with pride

“don't ever tell my parents that you eat beef

they won't let you in”

“your sister is one of us,

as she married a brahmin”

said another

 

And yet I can never be one of you!!

who legitimizes my existence?

does my colour and my class negate my caste?

the reality that i was born into?

does it debar me from speaking my dalit dialect

does it make me less of an ezhava?

 

ezhava,

an identity i cling on to

the only way to reclaim my past

narratives of resistance and rebellion

questioning my privileges

meandering through the untouched path

towards celebrating being

an ezhava

 

~~

Ezhavas are ex-untouchables who are now categorized as OBCs; they are considered as the most dominant among the Avarnas (that is, the people outside the varna system).

Nambiars are a ritually higher shudra community on par with the Nairs.

 Narayana Guru was an anti-caste ezhava saint of the 19th century. He has been viewed both as a liberating and sanksritiing agent.

Shruti Tharayil works with a non-profit organization in Andhra Pradesh. She works closely with Adivasi, Dalit and pastoralist communities on Women, Violence and Livelihoods with the focus on Food Sovereignty. 

 

Dalita Naaniis – 2

April 19th, 2013 by naren bedide

Last night

Kanshi Ram appeared in my dream

he raised me from the floor

and placed me on a chair

~~~

 

The beloved crop

committed suicide

The farmer

only expressed solidarity

~~~

 

Caste

is a Hydra

If you cut it into pieces

it survives as sub-castes

~~~

 

Surprisingly

the murderer

looks

exactly like a man!

~~~

 

God 

is not a clay idol:

She is the dalit mother

who changes mud into rotis

~~~

 

Not everyone

can become a Buddha

It is enough

if he doesn't lose his buddhi.

~~~

 

Phule

blew the conch:

Shudra

this is the right beginning for you.

~~~

 

All the milk is from the buffaloes

but the cow is worshipped

Isn't that

varna discrimination among animals?

~~~

 

How does green grass burn?

Throw in some dogmas, 

politics into it

and you'll know how.

~~~

 

The one who is sold is the boss

and the buyer is the slave!

Marriage

isn't even a business.

 

My translation of some of Netala Pratap Kumar's Telugu naaniis from his collection of poetry 'daLita naaniilu'. 

Naaniis are a new form of short poems, somewhat like haikus, that Telugu poets have been experimenting  with in the last two decades or so. Please read more naaniis by Netala Pratap Kumar here. 

Dr Kathi Padma Rao, talking about Pratap Kumar's naaniis, says:

Buddhism is the philosophical foundation of 'daLita naaniis'. Ambedkar vaadam (Ambedkarvad) is its sociology. The idiom is of the Dalit wadas. The expression stems from struggles and conflicts that are a part of life. Reading these aphorisms is like listening to my father, or my uncle, or my grandfather.

Tree of life

March 29th, 2013 by admin

P. Dayanandan

By the entrance to the Garden of Eden

There I waited for the botanist

who knew all about mustards, figs and lilies.

“Tell me, Cousin Jesus

I have seen the tree of Knowledge

And the Tree of Life

Show me the Tree of Freedom

Unguarded by swords, serpents or priests"

He took me past the Garden of Gethsemane

There it was – a cross of dead wood.

He said that he had climbed it

and knew that I could climb it too

I hugged him and kissed him

I broke the chains, shattered the bloody nails,

Cleared the garden and raised a forest

The sweet smell of freedom filled every pore

I am the Tree of Life!                                                             

 

This poem was written by Dr. Paulraj Dayanandan with Easter in his mind, as a card conveying his best wishes to all. 

~~~

Dr. P. Dayanandan retired as a professor and chairman of botany after teaching for 38 years in the US. His interests range from all aspects of botany to Pallava art history, Tamil literature, Dalit issues, education, space biology and spending time with young people to explore social consequences of oppression and empowering them to pursue studies in India and abroad. Ten years ago he helped organize a student and youth group called 'THUDI' involved in educating, agitating and organizing.

Sorry Mudasir Bhai

March 9th, 2013 by admin

Gurram Seetaramulu

Sorry Mudasir Bhai!

Long before you were born
In this country
Your name was listed
Among the traitors.

Your religion is a conspiracy
Your prayer meetings are a conspiracy
Your lying quiet is a conspiracy

It's true !!

Your study in EFLU is a conspiracy;
All is well in Heaven:
The other day, someone else,
Yesterday, you,
Today, someone else —
Tomorrow and day after tomorrow?
Who is next ?

Sorry Mudasir!!!

The 'collective consciences' were satisfied yesterday
But today the story recurs in another form
History repeats itself…

Sorry Mudasir Bhai!!!

 

Gurram Seetaramulu's 'Sorry Mudassir Bhai' was written in memory of a young Kashmiri student in the English and Foreign Languages University (EFLU), Mudasir Kamran, who commited suicide in the campus on March 2, 2013. [Read more about the incident here]. 

Seetaramulu is a doctoral fellow at EFLU.   

Shroud

February 26th, 2013 by admin

Baban Londhe

On a plain so vast our eyes could not reach

they would make speeches to their hearts' content

and shout out novel slogans,

blow a breath of hope on our overtired limbs.

At times, to our shanty towns they would come,

careful not to rumple their ironed clothes

crossing our lanes and alleys,

jumping across streaming gutters

when they stopped beside our doors

we felt inexplicably moved.

Viewing our pitiable state they would say

'Truly, this needs a social economic cultural change,

the whole picture needs to be changed.'

Then we would sing

their songs

in sonorous full-throated tones.

Acting innocuous, they would eat

the marrow of our bones.

Days passed by.

Darkness pressed from all sides,

We battled against sunshine and rain

And like fools awaiting salvation

we have stood our ground

and are sunk to the neck in mire.

But now they say plans are worked out

for our salvation

–covering our wasted tombs

in a new shroud

What munificence!

 

Baban Londhe's Marathi poem 'Shroud' translated by Charudatta Bhagwat. Source: No Entry For The New Sun: Translations from Modern Marathi Poetry. Edited by Arjun Dangle

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